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________________ ४७ , रसात्मक धारा को प्रवाहित किया है यदि एक ओर वह जन-मानस को व्यापक रूप से आप्लावित करती है तो दूसरी ओर वह उनको सगुणोपासक भक्तों के मध्य ले जाकर खड़ा करने में सहायक होती है। उन्होंने विविध राग-रागनियों में रचित अपने भजनों को संगीत से वेष्टित करके साधना के शुष्क तत्वों को भी सहज बना दिया है। प्रसन्न और सन्तुष्ट रहने वाला व्यक्ति ही अपने सम्पर्क में आने वाले व्यक्तियों के दुःख को दूर कर उनके ओष्ठों पर सरस हँसी बिखेरने में सफल हो सकता है। आचार्यश्री सभी को प्रसन्न देखना चाहते थे। अत: वे हमेशा प्रसन्न रहते थे और उनके मधुरोष्ठों पर स्मिति की सरस लहरी निरन्तर विद्यमान रहा करती थी। वे तत्वदर्शी विचारक, सरस्वती के वरद पुत्र, त्यागी, तपस्वी, अहिंसा की जीवंत मर्ति, कर्मवीर साधक और क्रोधजयी विचारक थे। उनकी वाणी में मृदुता तथा चेहरे पर हमेशा संतोष की रेखायें विद्यमान रहती थीं। इसलिये जनता रसमग्न होकर उनके विचारों को सुनती, गुनती और अपनाती थी। अपने इन गुणों के कारण आचार्यश्री विरल-विशेष महापुरुष के रूप में “यावच्चन्द्र दिवाकरो" परिगणित होंगे और आलोचक तथा आराधक उनके सम्बन्ध में हमेशा कहते रहेंगे: "सिंहो के लेहड़े नहीं, साधुन चलै जमात"। वास्तव में पूज्यपाद आचार्यश्री विजयलब्धि सूरि जी महाराज जैसे संत. साधक जमात में नहीं चलते। गुदड़ी में लाल होते तो हैं परन्तु बहुत कम। हमारे लालचन्द जी इन्हीं लालों में से एक लाल थे। इत्यलम्। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525041
Book TitleSramana 2000 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2000
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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