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________________ प्रभावना मे कुछ ऐसी क्षमता थी, उनकी वाणी में कुछ ऐसी मधुरता थी कि सुनने वाला चाहे कितना भी निर्मम, हठी, प्रतिगामी अथवा अधर्मी क्यों न हो परन्तु उनके उपदेशों को सुनने के बाद वह उनका प्रशंसक हो जाता था। यद्यपि वे स्यादवाद के समर्थक, जिन शासन के अनुयायी और जैन धर्म के प्रचारक आचार्य थे परन्तु उन्होंने कभी किसी को कोई कुवचन नहीं कहा। यदि उनके तर्को, सिद्धान्तों अथवा उपदेशों से असहमत होने के कारण कुसमय में भी कोई व्यक्ति उनके पास शास्त्रार्थ करने आया तो उन्होंने उसे बड़े स्नेह के साथ पास बुलाया, धैर्य और प्रेमपूर्वक उसके तर्कों को सुना तथा बड़ी सहिष्णुता के साथ उन्होंने अपने तर्कों द्वारा उसके मत का खंडन अथवा अपने सिद्धान्तों का मंडन किया। किन्तु ऐसे भी उदाहरण मिलते हैं जब आचार्य जी ने प्रतिपक्षी को पराजित करने के पश्चात् उसके पक्ष का मंडन करते हुये यह भी प्रमाणित कर दिया कि उसका पक्ष वास्तव में ठीक है परन्तु विषय के प्रति लगन और रुचि न होने के कारण वह अपने पक्ष का मंडन नहीं कर पाता। ये प्रसंग आचार्य श्री के व्यक्तित्व के अजातशत्रुत्व का परिचय देते हुए उनको मानव-मात्र का मित्र प्रमाणित करते हैं। आचार्यश्री लब्धिसूरि जी न केवल अप्रमित विद्वान्, वाग्मी, असाधारण साहित्य-स्रष्टा और अपार ज्ञान-राशि की खान थे वरन् वे ममता, उदारता, मिलनसारिता और निस्पृहता के भी प्रतीक थे। उनमें हमें एक श्रेष्ठ मनुष्य, श्रेष्ठ अन्वेषक, विचारक, ज्ञान-पिपासु, शान्ति और अहिंसा प्रचारक जुझारू आचार्य के दर्शन होते हैं। वे मानवता के अवतार, जन-जन के शिक्षक और संयमी जीवन व्यतीत करने वाले महापुरुष थे। अपने उपदेशों और ग्रंथों के माध्यम से उन्होंने धर्म, न्याय और आगम के सिद्धान्तों को शुद्ध तथा सही रूप में जनता के समक्ष प्रस्तुत किया। उन्होंने अपनी निष्ठा, साधना, त्याग और समर्पित जीवन का एक ऐसा आदर्श प्रस्तुत किया जो उनको लोकापकारी आचार्य के रूप में स्थापित करता है। इसलिये उनके द्वारा व्यक्त विचारों का आदर केवल जैन समाज में ही नहीं वरन् जैनेतर समाज में भी होता है। पूज्य श्री आचार्य लब्धिसूरि जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी साधक थे। वे आजीवन देश की अनेक शैक्षणिक, सामाजिक और धार्मिक संस्थाओं से जुड़े रहे तथा अपने प्रखर पाण्डित्य, विलक्षण व्यक्तित्व, सौजन्य, सद्व्यवहार, शील और सदाचार द्वारा अपने संपर्क में आने वाले व्यक्तियों के हृदय पर अपने उच्च विचारों की अमिट छाप डालने में सफलता प्राप्त की। यद्यपि वे विरक्तिमूलक ज्ञानसाधना के व्रती थे परन्तु अपनी भक्त्यात्मक रचनाओं में उन्होंने भक्ति की जिस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525041
Book TitleSramana 2000 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2000
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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