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________________ ४५ साधना और प्रतिस्थापना करने के साथ-साथ उन्होंने ३७ वर्षों तक जिन धर्म के आचार्य के गुरुतर दायित्व का जिस रूप में निर्वाह किया और इन सीमाओं के मध्य रहकर भी विभिन्न धर्मों और उनके अनुयायियों के प्रति जो सम्यक्, दृष्टि, सम्यक् ममत्व और अपनत्व दिखाया वह एक धर्म और समाज से सम्बन्धित होने पर भी इनको मानव मात्र का आचार्य प्रमाणित करते हुये "उदार चरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्' में निहित सत्य को चरितार्थ करता है। यह ठीक है कि आचार्य लब्धिसूरि जी जिन शास्त्र की प्रभावना करने वाले आचार्य थे परन्तु साधना और आराधना के पश्चात् इन्हें जो दिव्य शक्तियाँ प्राप्त हुई थीं उनका उपयोग इन्होंने किसी एक व्यक्ति या समाज के लिये न करके मानवमात्र के कल्याण के लिये किया। इनका पूरा जीवन और समय आत्मा के अरविन्द को विकसित करने के उपक्रम में बीता। आत्मा को ये ज्ञान और दर्शन-स्वरूप मानते थे तथा यह कहते थे कि भौतिक पदार्थ आत्मा के असंतोष का कारण है, संसार जन-जीवन को अशरण अथवा अनाथ बनाता है और इसके कारण जीवन में अनेक कष्ट उत्पन्न होते रहते हैं। इसलिये ये निरन्तर यह प्रयत्न करते रहे कि शास्त्रों की प्रभावना द्वारा अज्ञानाधंकार को दूर कर जन-मानस में करुणा की जाह्नवी प्रवाहित की जाये और मनुष्य के हृदय में मनुष्य के प्रति अपनत्व उत्पन्न हो। पूज्यपाद आचार्यश्री विजयलब्धि सूरि जी महाराज यद्यपि मूलत: ऐसी परम्परा के साधक थे जो उपासना-आराधना के बल पर वैयक्तिक मुक्ति का मार्ग खोजने पर बल देती है। परन्तु उनको यह सत्य पूरी तरह से ज्ञात था कि वृक्ष अपने लिये नहीं फलते, नदियां अपना पानी स्वयं नहीं पीतीं और जल से युक्त बादल नीचे की ओर झुक जाते हैं। इसलिये वे अपनी साधना से प्राप्त सत्य का प्रयोग केवल व्यक्ति या समाज के लिये ही न करके मानव मात्र के कल्याण के लिये करते थे। वे यह जानते थे कि भारत गांवों का देश है और यहाँ की अधिकांश जनता गावों में रहती है और अज्ञानता के साथ-साथ वह अन्य अनेक कुव्यसनों अथवा कुप्रवृत्तियों से पीड़ित है। इसीलिये वे नगरों की अपेक्षा गांवों में अधिक रहते थे और अपनी प्रभावना द्वारा जनता के अज्ञानान्धकार को काट कर उसको सत्य-सूर्य का दर्शन कराने का सफल प्रयत्न करते थे। आचार्यश्री के जीवन में ऐसे अनेक प्रसंग आये जब वे जाना तो कहीं चाहते थे किन्तु चले कहीं गये और उन्होंने बिना किसी विशेष आयोजन अथवा उपचार के सामान्य ढंग से सामान्य भाषा में सामान्य जनता को उपदेश देकर चोरी, जुआ, बलात्कार जैसे कुकर्मों से मुक्त कर उसको सात्विक कर्मों की ओर प्रेरित किया। __ आचार्यश्री लब्धिसूरि जी महाराज की वाणी में कुछ ऐसा जादू था, उनकी Jain Education International For Private & Personal Use Only For www.jainelibrary.org
SR No.525041
Book TitleSramana 2000 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2000
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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