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________________ ८१ अचेलक अणगार- दीक्षा लेने के समय महावीर के शरीर पर एक श्वेत वस्त्र (देव दृष्य) था। तेरह महीनों के बाद अचेल परिषह के आमन्त्रण रूप में उन्होंने उसे भी त्याग दिया। सर्दी, गर्मी एवं वर्षा के सभी कष्टों को उन्होंने सहन किया। भयंकर सर्दी में भी वे खुले में ही ध्यान करते थे। अनिकेत-चर्या- महावीर कभी निर्जन झोपड़ी, धर्मशाला, प्याऊ, लुहार की शाला में रहते, कभी मालियों के घरों में, कभी शहर में, कभी श्मशान में रहते तो कभी उद्यान या सूने घर में या वृक्ष के नीचे रात्रि बिताते। ऐसे स्थानों पर रहते हुए वर्द्धमान को नाना प्रकार के उपसर्गों का सामना करना पड़ा। सर्प आदि जीव-जन्तु उन्हें डस जाते, गिद्ध जैसे पक्षी उन्हें काट खाते। दुराचारी मनुष्य उन्हें यातना देते, दुराचारिणी स्त्रियां उन्हें काम-भागों के लिए सतातीं। जार पुरुष उन्हें मारते, पीटते पर वे समाधि में ही तल्लीन रहते तथा वहाँ से चले जाने को कहने पर अन्यत्र चले जाते। साधना काल का आहार- उनके भोजन के नियम बड़े कठोर थे। निरोग होते हुए भी वे मिताहारी तथा खान-पान में संयमी थे। मान-अपमान में समभाव रखते हुए वे भिक्षाचर्या करते तथा कभी दीनभाव नहीं दिखाते थे। भिक्षा में रूखा-सूखा, ठण्डा-बासी व नीरस जो भी आहार मिलता, वे शान्तभाव से सन्तोष के साथ ग्रहण करते। मात्र शरीर निर्वाह के लिए सूखे भात, मूंग, उड़द का आहार करते। एक बार निरन्तर आठ मास तक वे इसी प्रकार का नीरस आहार करते रहे। रसों में उन्होंने कभी आसक्ति नहीं दिखाई। देहासक्ति का त्याग--- शरीर के प्रति वर्द्धमान की अनासक्तता रोमांचकारी थी। रोग उत्पन्न होने पर भी वे औषधि-सेवन की इच्छा नहीं करते थे। उन्होंने शरीर के विश्राम की कभी आकांक्षा नहीं की। वे दैहिक वासना से सर्वथा मुक्त थे। निद्रा-विजय- श्रमण वर्द्धमान ने कभी पूरी नींद नहीं ली। जब अधिक नींद सताती तो वे शीत में बाहर निकल थोड़ा घूमकर निद्रा दूर करते। हमेशा सहज-जागृत रहने की चेष्टा करते। वे प्रहर-प्रहर किसी लक्ष्य पर आंखें टिका कर ध्यान करते थे। __ अनासक्ति- वे गृहस्थों के साथ कोई संसर्ग नहीं रखते थे, न ही गृहस्थों के गान, नृत्य या संगीत आदि में कोई रुचि रखते थे। ध्यानावस्था में कुछ पूछने पर भी उत्तर नहीं देते थे। वे स्त्री-कथा, भक्त-कथा, राज-कथा तथा देश-कथा में कोई रुचि नहीं लेते थे। यदि शून्य स्थानों में कोई उनसे पूछता कि आप कौन हैं तो वे संक्षिप्त उत्तर देते- "अहमंसि ति भिक्खू" अर्थात् मैं भिक्षु हूँ। न सहन किये जा सके, ऐसे कटु व्यंग्य वचन, निन्दा, व तिरस्कार का भी वे उत्तर नहीं देते थे तथा मौन रहते थे। वे हमेशा निर्विकार, कषाय-रहित, निर्मल ध्यान और आत्म-चिन्तन में समय बिताते थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525040
Book TitleSramana 2000 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2000
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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