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________________ vi अमूल्य धरोहर है। हम इस निधि से समृद्ध होकर अनुपम गौरव का अनुभव कर रहे हैं। वाराणसी जैसी सांस्कृतिक महानगरी में इस मङ्गल प्रवेश की इस बेला पर सकल समाज आपका हार्दिक स्वागत कर रहा है। आप पूर्ण स्वस्थ रहें और निष्पक्ष रूप से सामाजिक समरसता प्रस्थापित करने में अपना अमूल्य योगदान दें, इस शुभ कामना और शुभ भावना के साथ हम आपका पुनः पुनः अभिनन्दन कर रहे हैं। इस पुनीत आशा के साथ कि आप जीवन पर्यन्त निरामय रहें और वीतराग साधना का सफलतापूर्वक प्रचार-प्रसार करते रहें । इस स्वर्णिम अवसर पर पार्श्वनाथ विद्यापीठ भी आपका हार्दिक अभिनन्दन कर रहा है। लगभग साठ वर्ष पुराना यह शोधसंस्थान जैन साहित्य और संस्कृति के प्रचार-प्रसार में अविरल लगा हुआ है। आप आचार्यश्री ने हमारे यहाँ ससंघ पधारकर अपरिमित सन्तोष और प्रसन्नता व्यक्त की है। इतना ही नहीं उसके अभ्युत्थान और विकास के लिए भी भरपूर सहयोग देने का आश्वासन दिया है। आपके ही आशीर्वाद से यहाँ दस कमरों वाले एक सुन्दर छात्रावास का निर्माण शुरु हो रहा है जो नवम्बर २००० तक बनकर तैयार हो जायेगा। इसी तरह का सहयोग आपश्री अन्य क्षेत्रों में भी देना चाहते हैं। हम आपके और आपके शुभेच्छुओं के प्रति पुनीत आशीर्वाद के लिए सदैव कृतज्ञ रहेंगे। पं० दलसुखभाई मालवणिया दिवंगत पार्श्वनाथ विद्यापीठ के मार्गदर्शन, जैन विद्या के उन्नायक, सुप्रसिद्ध दार्शनिक, पद्मविभूषण पं० दलसुखभाई मालवणिया का विगत १ मार्च को लम्बी बीमारी के पश्चात् ८४ वर्ष की अवस्था में निधन हो गया । अत्यन्त निर्धनता में पले-पुसे श्री मालवणिया जी का समग्र जीवन एक सशक्त स्वाध्यायी विद्वान् के रूप में बीता। उन्होंने १९३४ई० में मुम्बई में ४० रुपये मासिक पर स्थानकवासी जैन कान्फ्रेन्स के मुख्यपत्र जैनप्रकाश के सम्पादन से अपना जीवन प्रारम्भ किया । इतनी ही राशि में उन्हें प्राइवेट ट्यूशन से मिल जाती थी । सन् १९३६ में आप मात्र ३५ रुपये मासिक पर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राध्यापक प्रज्ञाचक्षु पं० सुखलाल जी संघवी के रीडर नियुक्त हुए । धीरे-धीरे पण्डित जी के साथ आपका सम्बन्ध गुरु-शिष्य और बाद में पिता-पुत्र जैसा हो गया। सन् १९४४ में आप पं० सुखलाल जी के अवकाश ग्रहण करने के उपरान्त काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में जैन दर्शन के प्राध्यापक नियुक्त हुए । सन् १९५७ में मुनि पुण्यविजय जी की प्रेरणा से अहमदाबाद में श्रेष्ठी श्री कस्तूरभाई द्वारा स्थापित लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मन्दिर के निदेशक बनकर वहाँ गये और जहाँ से १९७६ ई० में सेवानिवृत्त हुए । अपने वाराणसी प्रवास के समय पण्डित जी ने प्राकृत अन्य परिषद् और जैन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525040
Book TitleSramana 2000 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2000
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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