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________________ ५० उत्तरकालीन जैन साहित्य में भलीभांति देखी जा सकती है। हरिभद्र, जटासिंहनन्दि, सोमदेव, हेमचन्द्र, आशाधर आदि ने इसी शैली का भरपूर उपयोग किया है। जिनसेन के पूर्व भी यह एकात्मकता द्रष्टव्य है। आचार्य विमलसूरि के पउमचरियम् (लगभग प्रथम शती ई०) में ऋषभदेव की स्तुति के प्रसंग में उन्हें स्वयम्भू, चतुर्मुख, पितामह, भानु, शिव, शंकर, त्रिलोचन, महादेव, विष्णु, हिरण्यगर्भ, महेश्वर, ईश्वर, रुद्र और स्वयंसम्बुद्ध आदि नामों से स्मरण किया है (११, २८, ४९, ५५)। इसका स्पष्ट तात्पर्य है कि वैदिक देवता से शिवतत्त्व की एक लम्बी यात्रा हुई है और रुद्र-शिव-ऋषभ एक ही परम्परा से सम्बद्ध एक ही व्यक्तित्व के प्रतीक हैं। रुद्र अथवा शिव इस व्यक्तित्व के रौद्र-शक्ति सम्पन्न रूप का प्रतिनिधित्व करते हैं और ऋषभदेव उसके कल्याण रूप को लिये हुए दिखाई देते हैं। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि भारतीय संस्कृति में शिव और ऋषभदेव एक ही व्यक्तित्व के दो रूप हैं जिन्हें क्रमश: वैदिक और जैन संस्कृति ने अपने-अपने ढंग से अपनाया है। समूचे जैन साहित्य से यदि ऋषभस्तुतियां एकत्रित की जायें तो निश्चित ही यह तथ्य और भी पुष्ट हो सकेगा। इस प्रकार 'शिव' तत्त्व एक समन्वय का द्योतक है जिसको समझने की आधुनिक परिप्रेक्ष्य में नितान्त आवश्यकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525040
Book TitleSramana 2000 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2000
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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