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________________ ४८ तीर्थङ्कर ऋषभदेव से सम्बद्ध रहे हैं। इस सन्दर्भ में आदिपुराण का द्वितीय पर्व उल्लेखनीय है इमे तपोधना दीप्ततपसो वातवल्कलाः । भवत्पादप्रसादेन मोक्षमार्गमुपासते ।।१८।। मुनयो वातरशनाः पदमूर्ध्वं विधित्सवः। त्वां मूर्धवन्दिनो भूत्वा तदुपायमुपासते ।। ६४।। इस प्रकार के शताधिक शब्द आदिपुराण में मिलते हैं जो शिव और ऋषभदेव के लिए समान रूप से प्रयुक्त हुए हैं। इस दृष्टि से महाभारत के अनुशासनपर्व के सत्रहवें अध्याय में आये शिवस्तोत्र तथा आदिपुराण के पच्चीसवें पर्व में आये जिनसहस्रनाम का उल्लेख किया जाना नितान्त आवश्यक है। यह जिनसहस्रनामस्तोत्र जिनसेन ने इन्द्र द्वारा की गयी स्तुति के रूप में प्रस्तुत किया है। जैसा हम जानते हैं, वैदिक साहित्य में विष्णुसहस्रनाम, शिवसहस्रनाम, गणेशसहस्रनाम, अम्बिकासहस्रनाम, गोपालसहस्रनाम आदि अनेक सहस्रनाम उपलब्ध होते हैं। उनमें कदाचित् प्राचीनतम सहस्रनाम महाभारत में वर्णित शिवसहस्रनाम होना चाहिए। आचार्य जिनसेन का सहस्रनाम इसी सहस्रनाम से प्रभावित दिखाई देता है। अन्तर यह है कि शिवसहस्रनाम में दिये १००८ नामों के साथ कोई विशेष तर्क नहीं है। मात्र यही है कि ये नाम भगवान् शिव को अधिक प्रिय हैं (श्लोक १७-३५), जबकि जिनसेन ने इन नामों के पीछे जो तर्क दिया है वह अधिक सबल और युक्तिसंगत है। उन्होंने कहा है कि महापुरुष के लक्षण १००८ माने गये हैं और ये लक्षण आप परमात्मा में दिखाई देते हैं इसलिए मैंने ये शब्द चुने हैं (आदिपुराण का २५वां पर्व, श्लोक ९८-९९)। ... आदिपुराण में आये इन १००८ नामों में से मैं यहाँ बानगी के रूप में कतिपय नाम प्रस्तुत हैं। उदाहरणतः मृत्युञ्जय, त्रिपुरारि, स्वयम्भू, त्रिनेत्र, अर्धनारीश्वर, शिव, शङ्कर, सम्भव, वृषभ, नाभेय, ईश्वर, अयोनि, परमतत्त्व, परमयोगी, अजर, विश्वभू, विश्वयोनि, जिनेश्वर, अनीश्वर, परमेष्ठी, योगीश्वर, यतीश्वर, दयीश्वर, प्रजापति, वृषायुध, भूतनाथ, सहस्राक्ष, विश्वसृट, योगविद्, यज्ञपति, प्रशमात्मा, माता, पितामह, महाकारुणिक, महाभूतपति, अरिंजय, शम्भु, जगत्पति, धर्मचक्री, सिद्धार्थ परमेश्वर, वृषपति, वृषध्वज, हिरण्यनाभि, हिरण्यगर्भ, स्थविर, गणाधिप, भिषग्वर, वरद, जातरूप, महेश्वर, महायोग, महामुनि, महादेव, नैकात्मा, मुनीश्वर, पुराणपुरुष, कनकप्रभ, दिग्वासा, वातरशना आदि ऐसे नाम हैं जो हेमचन्द्राचार्य विरचित "अर्हनामसहस्रसमुच्चय', आशाधर के “जिनसहस्रनामस्तवन' और भट्टारक सकलकीर्ति विरचित “अर्हत्राम जिनसहस्रनाम' में समान रूप से उपलब्ध होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525040
Book TitleSramana 2000 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2000
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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