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६. अपूर्वकर्ण मुद्गरइ करी घारौं टालें अनेक प्रकारइ, गाढ़ा दुष्ट ग्रंथि (ग्राट्ठि) भेदइ,
भव्य अंतर्मुहुर्त माहि जाइ अनिवृत्तककरण परिणाम रूपइ निर्मल करइ।। ते तिहां कव्कर्णइ करी सु भरनी परइ कर्म रूपीया वैरीनइ जीतीनइ परम आनन्द पामइ तिम सम्यकत्व पामइ जीवे चारिवतु प्रसादइ करी। ते सम्यक्त्व एक विधइ, वि विधइ, तिन विधइ, च्यार विधइ, पाँच विधइ । तिहा एक विध जे-जे परूप्पा भावने विषइ रुचिवंता ते विधा। दो विधि ते द्रव्य-भाव्य, निश्चइ-व्यवहार अथवा निसर्ग उपदेश तुम्हारा वचन पंडितौइ निच्छ कहु। तुम्हारा वचन नइ विषइ, त्वनि रुचि पणि, परमार्थ ज्ञान नअ जाण, ए द्रव्य
गति सम्यक्त्व कहीयइ भावगत सम्यक्त्व तेस्युः परमार्थन तु जालभ हुइ। ११. निश्चय सम्यक्त्व ज्ञानादिक ३ भला परिणाम व्यवहार वली तुम्हारा सम्यकत्व
कही समकते हे तन्याइ करी। १२. पाणी एक निरमली घाली निर्मल करइ तथा स्वभावइ निर्मलं थाइ तथा वस्त्र
मार्गेन गुंबडो गोमूत्रादि ले सुद्ध घाई तथा स्वभावइ जसु छु घाई रोगादि स्वभावइ उपत्रमइ तथा औषधादिका उपसमइ जे परुप्पउ, स्वभावइ उपदेशइ। हे
सम्यक्त्व, तुझनइ नमुः। १३. ते सम्यक्त्व त्रिविधैः कारक, रोचक, दीपक, णाणे भेदें तुम्हारा मतनइ विषइ
पंडित कहइ तथा तीन भेदते खायोपशम, उपशम, खाइक- ये ३ भेदइ काउ। जे जिम कहु तुम्हारइ मतइ ते तिमज करइ ते कारक सम्यकत्व कहीयइ। रोचक सम्यक्त्व भाले रुच मात्र करें तुम्हारा धर्म माहि। स्वमेव मिथ्यादृष्टि धर्म कथादि दीपावें अनेरानइ, अगाभमर्दनाचार्य वयु दीपक समकत कहीयइ ए कहइ तुम्हारा शास्त्रवेइ विौं चतुरः। अपूर्वकर्ण पुञ्ज कीथी त्राणि पुंज जेणइ- मिथ्यात्व पुंज, मिश्रपुंज, सम्यकत्वपुंज। मिथ्यात्व पुन: उदय आवाउ ते खपावी। उदय अणाव्यु
उपशमावी अनिवृत्तकरण थकी परहूं उपरांति क्षयोपशम सम्यक्त्व हुइ। १७. अणकीधइ त्रिणपुंजें- ऊसर खेत्रइ, दावानल ईयभगार तथा दाधा रूपनइ ना
दृष्टांतइ अंतरकरणइ करी उपशमिक सम्यकत्व अथवा उपशमश्रेणि चढ्या हुई
उपशम सम्यकत्व। १८. मिथ्यात्वनइ खयइ क्षायक सम्यक्त्व ते सात प्रकृतिनइ क्षयइ हुइ, निकाचित
आउ खानैं बधइ अनन्तानबंधी ४, मोहनीय च्यार आउरनउ बंध न हुइ। तेह
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