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________________ १०४ को सुरक्षित रखने की दृष्टि से जैनधर्म में इन सभी की हिंसा वर्जित मानी गयी है। यह एक विश्वजनीन सत्य है कि पदार्थ में रूपान्तरण प्रक्रिया चलती रहती है। "सद्रव्य लक्षणम्" और "उत्पाद् व्यय ध्रौव्य युक्तम् सत्' सिद्धान्त सृष्टि संचालन का प्रधान तत्त्व है। रूपान्तरण के माध्यम से प्रकृति में सन्तुलन बना रहता है। पदार्थ पारस्परिक सहयोग से अपनी जिन्दगी के लिए उर्जा एकत्रित करते हैं और कर्म सिद्धान्त के आधार पर जीवन के सुख-दुःख के साधन संजो लेते हैं। प्राकृतिक सम्पदा को असुरक्षित कर उसे नष्ट-भ्रष्ट कर हम अपने सुख-दुःख की अनुभूति में यथार्थता नहीं ला सकते। अप्राकृतिक जो भी होगा, वह मुखौटा होगा, मिलावट के अलावा और कुछ नहीं। प्रकृति का हर तत्त्व कहीं न कहीं उपयोगी होता है। यदि उसे उसके स्थान से हटाया गया तो उसका प्रतिफल बुरा भी हो सकता है। ब्रिटेन में मूंगफली की फसल अच्छी बनाने के लिए मक्खी की सृष्टि को नष्ट किया गया फिर भी मूंगफली का उत्पादन नहीं हुआ, क्योंकि वे मक्खियाँ, मूंगफली के पुष्पों के मादा और नर में युग्मन करती थीं। सर्प आदि अन्य कीड़े-मकोड़ों आदि के विषय में भी यही बात कही जा सकती है। पर्यावरण का सम्बन्ध मात्र प्राकृतिक सन्तुलन में ही नहीं है बल्कि आध्यात्मिक और सामाजिक वातावरण को परिशुद्ध और पवित्र बनाए रखने के लिए भी उसका उपयोग किया जाता है। इस कथन की सिद्धि के लिए हम जैन-बौद्ध-वैदिक आदि परम्पराओं में मान्य उन चैत्य और बोधि वृक्षों का उल्लेख कर सकते हैं जिनके नीचे बैठकर तीर्थकरों, बुद्धों और ऋषि-महर्षियों ने ज्ञान प्राप्त किया था। इतना ही नहीं, जैन तीर्थंकरों के चिन्हों को भी पर्यावरण से जोड़ा जा सकता है। संक्षेप में यदि कहा जाए तो धर्म ही पर्यावरण का रक्षक है और नैतिकता उसका द्वारपाल। आज हमारे समाज में चारों ओर अनैतिकता और भ्रष्टाचार सुरसा की भाँति बढ़ रहा है। चाहे वह राजनीति का क्षेत्र हो या शिक्षा का,धर्म का क्षेत्र हो या व्यापार का, सभी के सिर पर पैसा कमाने का भूत सवार है माध्यम चाहे कैसा भी हो इससे हमारे सारे सामाजिक सम्बन्ध तहस-नहस हो गए हैं। भ्रातृत्व भाव और प्रतिवेशी संस्कृति किनारा काट रही है, आहार का प्रकार मटमैला हो रहा है, शाकाहार के स्थान पर अप्राकृतिक खान-पान स्थान ले रहा है। मिलावट ने व्यापारिक क्षेत्र को सड़ी रबर की तरह दुर्गन्धित कर दिया है। अर्थलिप्सा की पृष्ठभूमि में बर्बरता बढ़ रही है। प्रसाधनों की दौड़ में मानवता कूच कर रही है। इन सारी भौतिक वासनाओं की पूर्ति में हम अपनी आध्यात्मिक संस्कृति को भूल बैठे हैं। मानसिक, वाचिक और कायिक क्रियाओं के बीच समन्वय खत्म हो गया है। हमारी धार्मिक क्रियायें मात्र बाह्य आचरण का प्रतीक बन गयी हैं। परिवार का आदर्श जीवन समाप्त हो गया है, ऐसी विकट परिस्थिति में अहिंसा के माध्यम से पर्यावरण को सन्तुलित बनाए रखने की साधना को पुनरुज्जीवित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525040
Book TitleSramana 2000 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2000
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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