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अहिंसा की परिधि में पर्यावरण सन्तुलन
डॉ. पुष्पलता जैन अहिंसा धर्म है, संयम है और पर्यावरण निसर्ग है, प्रकृति है। प्रकृति की सुरक्षा हमारी गहन अहिंसा और समय साधना का परिचायक है। प्रकृति का प्रदूषण पर्यावरण के असन्तुलन का आवाहक है और असन्तुलन अव्यवस्था और भूचाल का प्रतीक है अत: प्राकृतिक सन्तुलन बनाए रखना हमारा धर्म है, कर्तव्य है और आवश्यकता भी। अन्यथा विनाश के कगारों पर हमारा जीवन बैठ जाता है और कटी हुई पतंग-सा लड़खड़ाने लगता है। यह ऐतिहासिक और वैज्ञानिक सत्य है।
- प्राचीन ऋषियों, महर्षियों और आचार्यों ने इस प्रतिष्ठित तत्त्व को न केवल भली-भाँति समझ लिया था बल्कि उसे उन्होंने जीवन में उतारा भी था। वे प्रकृति के रम्य प्राङ्गण में स्वयं रहते थे, उसका आनन्द लेते थे और वनवासी होकर स्वयं को सुरक्षित रखने के लिए प्रकृति की सुरक्षा किया करते थे। जब कभी प्राकृतिक सन्तुलन बिगड़ा, विपत्तियों के अम्बार ने हमारे दरवाजे पर दस्तक दी और तब भी यदि हम न सम्भले तो मृत्यु का दुःखद आलिंगन करने के अलावा हमारे पास कोई दूसरा रास्ता नहीं बचेगा। शायद यही कारण है कि हमारे पुरखों ने हमें "परस्परोपग्रहो जीवानाम्" का पाठ अच्छी तरह से पढ़ा दिया जिसे हमने गांठ बांधकर सहेज लिया।
प्रकृति वस्तुत: जीवन की परिचायिका है। पतझड़ के बाद वसन्त और वसन्त के बाद पतझड़ आती है। दुःख के बाद सुख और सुख के बाद दुःख का चक्र एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। वनस्पति और पशु-पक्षी प्राणी जगत् प्रकृति के अभिन्न अंग हैं। उनकी सौन्दर्य-अभिव्यक्ति जीवन की यथार्थता है। वसन्तोत्सव हमारे हर्ष और उल्लास का प्रतीक बन गया है। कवियों और लेखकों ने उसकी उन्मादकता को पहचाना है, सरस्वती की वन्दना कर उसका आदर किया है और हल जोतकर जीवन के सुख का संकेत दिया है। इसका तात्पर्य है कि पर्यावरण का सम्बन्ध पशु-पक्षी और वनस्पति तथा मानव के साथ अनुस्यूत रूप में जुड़ा हुआ है।
अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, एस०एफ० एस० कालेज, न्यू एक्सटेंशन एरिया सदर, नागपुर, ४०० ००१.
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