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गुरु का स्वरूप : गुरुतत्त्वविनिश्चय के विशेष सन्दर्भ में
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उपर्युक्त गुणों का विवेचन करने के पश्चात् यह कहा गया है इन गुणों से युक्त साधू गणी है, गणधर है, तीर्थ है, तीर्थङ्कर है, अरिहन्त है, केवली है, जिन है, तीर्थ प्रभावक है, वंद्य है, पूज्य है, नमस्करणीय है, दर्शनीय है, परमपवित्र है, परमकल्याण है, परममंगल है, सिद्ध है, मुक्त है, शिव है, मोक्ष है, रक्षक है, सन्मार्ग है, गति है, शरण्य है, पारंगत और देवों का देव है। १९
इन गुणों के अतिरिक्त आचार्य/साधु/मुनि के मूलगुण एवं उत्तरगुणों की विवेचना भी जैन परम्परा में मिलती है। चारित्ररूपी वृक्ष के मूल अर्थात् जड़ के समान जो हों वे मूलगुण कहलाते हैं तथा मूलगुणों की रक्षा के लिए चारित्ररूपी वृक्ष की शाखा, प्रशाखावत् जो गुण हैं, वे उत्तरगुण हैं। मूलगुण और उत्तरगुण की संख्या को लेकर श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा में अन्तर है। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार साधु के पाँच मूलगुण हैं तथा बाईस उत्तरगुण हैं।२०
पाँच मूलगुण - अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह।
बाईस उत्तरगुण – (१) श्रोत्रेन्द्रिय-निग्रह, (२) चक्षुरिन्द्रिय-निग्रह, (३) घ्राणेन्द्रिय-निग्रह, (४) जिह्वेन्द्रिय-निग्रह, (५) स्पर्शेन्द्रिय-निग्रह, (६) क्रोध-विवेक, (७) मान-विवेक, (८) माया-विवेक, (९) लोभ-विवेक, (१०) भाव सत्य, (११) करण सत्य, (१२) योग सत्य, (१३) क्षमा, (१४) विरागता, (१५) मनःसमाहरणता, (१६) वचन समाहरता, (१७) काय समाहरणता, (१८) ज्ञान सम्पन्नता, (१९) दर्शन सम्पन्नता, (२०) चारित्र सम्पन्नता, (२१) वेदनातिसहनता, (२२) मरणान्तिकातिसहनता आदि।
दिगम्बर परम्परा के अनुसार २८ मूलगुण हैं, यथा- पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रिय-निग्रह, छः आवश्यक, केशलोंच, आचेलक्य, अस्नान, क्षितिशयन, अदन्तघर्षण, स्थितभोजन और एकभक्त।२१ इसी प्रकार चौरासी लाख उत्तरगुण माने गये हैं। दिगम्बर परम्परा में मान्य मूलगुण और उत्तरगुण का विवेचन जैनधर्म-दर्शन के विद्वान् डॉ० फूलचन्द जैन 'प्रेमी' ने अपनी पुस्तक 'मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन' में बहुत ही सुन्दर ढंग से किया है। किन्तु उनका यह कहना कि इस तरह मूलगुण और उत्तरगुण की संख्या श्वेताम्बर परम्परा में निर्धारित नहीं है, उचित नहीं जान पड़ता, क्योंकि सूत्रकृतांगसूत्र के नवम अध्ययन में गाथा ४४० से ४४६ तक अहिंसादि पञ्चमहाव्रत मूलगुणों के दोषों के त्याग का निर्देश किया गया है जिससे यह स्पष्ट होता है कि मूलगुण पाँच हैं। इतना ही नहीं जिस समवायांग का उद्धरण देते हुए डॉ० प्रेमी जी ने यह स्पष्ट किया है कि श्वेताम्बर परम्परा में मूलगुण-उत्तरगुण की संख्या निर्धारित नहीं है, उसी उद्धरण की विवेचना में युवाचार्य श्री मधुकर मुनि ने यह स्पष्ट लिखा है कि सत्ताईस में से पाँच मूलगुण है और बाईस उत्तरगुण है। जैन सिद्धान्त
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