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________________ श्रमण गुरु का स्वरूप : गुरुतत्त्वविनिश्चय के विशेष सन्दर्भ में डॉ० विजयकुमार जैन" भारतीय परम्परा में गुरु और गुरुकुलों का बहुत ही ऊँचा स्थान है। जगत का कोई भी ऐसा कार्य नहीं जो बिना किसी गुरु या पथ-प्रदर्शक के सहज रूप में सफल हो जाए। समाज की आकांक्षाओं, आवश्यकताओं और आदर्शों को व्यावहारिक रूप में परिणत करने का कर्तव्य गुरु को ही निभाना पड़ता है। यदि यह कहा जाए कि गुरु हमारी संस्कृति का केन्द्रबिन्दु होता है, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी । जिस प्रकार तराजू के दो पलड़ों के बीच डण्डी होती है और डण्डी के मध्य मुठिया होती है जो केन्द्रका कार्य करती है, उसी प्रकार गुरु हमारी संस्कृति के तीन तत्त्वों मुख्य देव. गुरु और धर्म के मध्य रहकर केन्द्र का कार्य करते हैं । जैन परम्परा में भी गुरु को नमस्कार महामन्त्र में " नमो आयरियाणं" के उच्चारण के साथ मध्यस्थ स्थान प्राप्त है। *. केवल पुस्तकें पढ़ने से काम नहीं चलता; जो मनुष्य उस कार्य को करके सफल हो चुका है, उसकी सलाह आवश्यक होती है और यदि कठिन कार्य हो तो कुछ दिनों तक उसके पास रहकर विनय और सेवा से उसे प्रसन्न रखते हुए उससे सीखना पड़ता है । न केवल लौकिक कार्य में ही बल्कि आध्यात्मिक कार्यों में भी गुरु की आवश्यकता होती है। इसी कारण जब कभी भी अध्यापक अथवा अध्यापन के विषय में चर्चा होती है तो किसी न किसी रूप में हम अपने उन प्राचीन गुरुओं को आदर्श रूप में स्वीकार करते हैं। चाहे वह अध्यापन का क्षेत्र हो अथवा ज्ञान के अविष्कार का विषय हो, सभी क्षेत्रों में हमें गुरु की आवश्यकता पड़ती है। जहाँ तक विद्यार्थी जीवन को सार्थक बनाने की बात है तो उसमें गुरु का सर्वोच्च स्थान है। प्रवक्ता, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी । Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525037
Book TitleSramana 1999 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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