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________________ पदार्थ विज्ञान और उसकी विवेचन-शैली : ७१ लोकाकाश के समान है, पुरुषाकार है। ये न तो सिकुड़ते ही हैं और न ही विस्तार को प्राप्त होते हैं। ये दोनों पदार्थ लोकाकाश प्रमाण असंख्यातप्रदेशी हैं। ये धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य जीवद्रव्य और अजीवद्रव्य के चलने और रुकने में सहायक होकर उपकार करते हैं। इन दो द्रव्यों की चर्चा के पश्चात् आकाशद्रव्य का विवेचन है। जैनदर्शन में आकाश को अमूर्तिक कहा गया है, अत: हमें जो कुछ भी आँखों से दिखाई दे रहा है वह सब पुद्गल है। क्योंकि रूप, रस, गन्ध और स्पर्श से युक्त पुद्गल ही है। इनमें से जहाँ एक भी रहेगा वहाँ शेष तीन भी अवश्य रहेंगे। इससे वैशेषिक दर्शन की यह मान्यता खण्डित हो जाती है कि पृथिवी में रूप, रस, गन्ध और स्पर्श – ये चारों गुण पाये जाते हैं। जल में रस, रूप और स्पर्श - ये तीन गुण पाये जाते हैं। तेज या अग्नि में रूप और स्पर्श- ये दो गुण अथवा वायु में केवल स्पर्श गुण पाया जाता है। शब्द आकाश का गुण है, इस वैशेषिक मान्यता का भी पूज्य वर्णी जी के सतर्क विवेचन से खण्डन हो जाता है। पूज्य वर्णीजी की शैली उपदेशात्मक है। वे ग्रन्थ भी लिखते हैं तो उपदेशात्मक शैली में। विषय चाहे कितना भी नीरस क्यों न हो वे अपने भावपूर्ण उद्गारों और रोचक तथा सहज ग्राह्य उदाहरणों के माध्यम से विषय का ऐसा प्रतिपादन करते हैं कि विषय हृदयङ्गत हुए बिना नहीं रहता है। उनके उदाहरण प्राय: सार्वजनिक जीवन से ग्रहण किये गये होते हैं। इसीलिये बच्चे, बूढ़े अथवा कम पढ़े-लिखे लोग भी समझ जाते. हैं। तर्क उनका ऐसा सटीक होता है कि लक्ष्य पर सीधे चोट करता है। सबसे अन्त में पज्य वर्णीजी ने काल द्रव्य का विवेचन किया है। इस प्रकार छह द्रव्यों/पदार्थों का विवेचन हो जाता है। इन द्रव्यों से ठसाठस भरे हुए इस लोक का चिन्तन करना हमारी बारह भावनाओं में भी एक है। इन द्रव्यों पदार्थों के स्वरूप-चिन्तन से संसार के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान होता है और हम संसार की असारता का चिन्तन करते हुए वैराग्य भावना को जगा सकते हैं। किन्तु आज की वर्तमान स्थिति भयावह है। जीव लोक में निवास करता हुआ सुख-शान्ति को प्राप्त करना चाहता है, किन्तु उसके सारे प्रयासों के बदले उसे दुःख-दर्द ही मिलता है। इसका कारण यह है कि हम जिस लोक में निवास करते हैं, उसके स्वरूप को पहचानने में हमने कहीं भूल की है। हम कहीं भटक गये हैं। सुख के साधनों की जगह हमने दुःख के साधनों को जुटाने का प्रयास किया है। अतः हम पदार्थों के वास्तविक रूप को समझें और संसार-भोगों से विरक्त होकर आत्म-कल्याण की ओर उन्मुख हों यही पूज्य वर्णीजी का सन्देश ‘पदार्थ विज्ञान' नामक ग्रन्थ के लेखन में हेतु रहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525037
Book TitleSramana 1999 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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