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________________ ५४ : टीका ग्रन्थ उपदेशपद एक ऐसा लोकप्रिय एवं शिक्षाप्रद कथा ग्रन्थ है जिससे आकृष्ट हो अनेक आचार्यों ने इस पर टीकाओं की रचना की है। १. सुखसम्बोधिनी टीका ४ उपदेशपद पर सबसे अधिक लोकप्रिय टीका तार्किकशिरोमणि आचार्य मुनिचन्द्रसूरि द्वारा रचित सुखसम्बोधिनी टीका है। यह बृहद्काय टीका १४५०० (साढ़े चौदह हजार) श्लोक प्रमाण है । ५ जैन महाराष्ट्री प्राकृत एवं संस्कृत भाषा में पद्य तथा गद्य रूप में रची गयी यह टीका अनेक दृष्टान्तों, आख्यानों, सुभाषितों एवं सूक्तियों से भरपूर है। इसमें अनेक सुभाषित अपभ्रंश भाषा में भी हैं। इस टीका की रचना विक्रम संवत् ११७४ में ‘अणहिल्लपाटन में हुई। टीकाकार ने उपदेशपद में सांकेतिक तथा पूर्णकथाओं को प्राकृत भाषा में तथा कहीं-कहीं प्राकृत शब्दों का संस्कृत अर्थ रूप में सन्दर्भ जोड़कर टीका का पर्याप्त विस्तार किया है। श्रमण / अप्रैल-जून १९९९ こ मुनिचन्द्रसूरि यशोभद्रसूरि के शिष्य तथा वादिदेवसूरि (स्याद्वादरत्नाकर के कर्त्ता) एवम् अजितदेवसूरि के गुरु थे। आनन्दसूरि तथा चन्द्रप्रभसूरि इनके गुरु भाई थे। मुनिचन्द्रसूरि उच्चकोटि के विद्वान् थे । उपदेशपद पर सुखसम्बोधिनी टीका के अतिरिक्त इन्होंने अनेक मौलिक एवं टीका ग्रन्थों की रचना की है। छोटे-बड़े कुल मिलाकर इन्होंने ३१ ग्रन्थ लिखे । ६ मौलिक ग्रन्थों में प्रमुख हैं अंगुलसप्तति, वनस्पतिसप्तति, आवश्यकसप्तति, गाथाकोश, उपदेशामृतकुलक, हितोपदेश कुलक, सम्यक्त्वोत्पादविधि, तीर्थमालास्तव आदि प्रमुख हैं। टीका ग्रन्थों में प्रमुख हैं – ललितविस्तरापञ्जिका, अनेकान्तजयपताका टिप्पनकम्, धर्मबिन्दुविवृत्ति, योगबिन्दुविवृत्ति, कर्मप्रकृति विशेषवृत्ति, सार्धशतकचूर्णि एवं उपदेशपद - सुखसम्बोधिनी वृत्ति । उपदेशपद पर इस वृत्ति के प्रणयन में रचनाकार को उनके शिष्य रामचन्द्रगणि ने भी सहायता प्रदान की । ७ २. ३. ४. मुनिचन्द्रसूरि की उपर्युक्त टीका के प्रारम्भिक भाग से ज्ञात होता है कि उपदेशपद पर सर्वप्रथम पूर्वाचार्य द्वारा रचित कोई गहन टीका थी, किन्तु काल के प्रभाव से अल्पबुद्धि वाले उसे स्पष्ट समझने में समर्थ नहीं थे अतः सुखसम्बोधिनी नामक इस सरल वृत्ति को बनाने का प्रयत्न किया गया। ८ वर्धमानसूरि ने वि० सं० १०५५ में उपदेशपद पर एक टीका रची है। इसकी प्रशस्ति पार्श्विलगणी ने रची है। इस समग्र टीका की प्रथमादर्श प्रति आर्यदेव ने तैयार की थी। 'वन्दे देवनरेन्द्र' से शुरू होने वाली इस टीका का परिमाण ६४१३ श्लोक है। - ९ 'उपदेशपद' पर एक अज्ञातकर्तृक टीका भी है । १० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525037
Book TitleSramana 1999 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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