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________________ आचार्य हरिभद्रसूरिप्रणीत उपदेशपद : एक अध्ययन : ५३ विविध विधाओं में साहित्य का प्रणयन करके इन्होंने प्राकृत एवं संस्कृत भाषा के साहित्य के विकास में महनीय योगदान किया है। ये जन्मना प्रतिभासम्पन्न विद्वान् ब्राह्मण और चित्तौड़ के राजा जितारि के राजपुरोहित थे। बाद में प्रसङ्गवश जैन साध्वी याकिनी महत्तरा के उपदेश से जैनधर्म में दीक्षित हुए। इनके दीक्षागुरु जिनदत्त थे। याकिनी महत्तरा को इन्होंने अपनी धर्ममाता माना और अपने को याकिनीसूनु कहा।१ दीक्षा के बाद अपनी विद्वत्ता तथा विशुद्ध साधु आचार का पालन करने के कारण ये अपने आचार्य के पट्टधर आचार्य बने। इनका जीवन राजपूताना और गुजरात में विशेषरूप से व्यतीत हुआ। इनके द्वारा विरचित अधिकांश ग्रन्थों के अन्त में 'विरह' शब्द उपलब्ध होता है। २ आचार्य हरिभद्र को १४४४ प्रकरणों का रचयिता माना जाता है। राजशेखरसूरि ने प्रबन्धकोश में इनको १४४० प्रकरणों का रचयिता बतलाया है, किन्तु इनमें से कुछ ही ग्रन्थ उपलब्ध हैं। इनकी उपलब्ध कृतियों का विवरण इस प्रकार है - -१. मूल ग्रन्थ १. धर्मसंग्रहणी, २. पंचाशकप्रकरण, ३. पंचवस्तुकप्रकरण, ४.धर्मबिन्दु प्रकरण, ५. अष्टकप्रकरण, ६. षोडशकप्रकरण, ७. सम्बोधप्रकरण, ८.उपदेशपद, ९. षडदर्शनसमुच्चय, १०. अनेकान्तजयपताका, ११.अनेकान्तवाद प्रवेश, १२. लोकतत्त्वनिर्णय, १३. सम्बोधसप्ततिप्रकरण, १४. समराइच्चकहा, १५. योगविंशिका, १६. योगदृष्टिसमुच्चय, १७. योगबिन्दु। २. टीका ग्रन्थ १. नन्दीसूत्र, २. पाक्षिकसूत्र, ३. प्रज्ञापनासूत्र, ४. आवश्यकसूत्र, ५. दशवकालिक, ६. पंचसूत्र, ७. अनुयोगद्वार, ८. ललितविस्तरा, ९. तत्त्वार्थ वृत्ति। कथा साहित्य के अन्तर्गत आचार्य हरिभद्र ने एक ओर "समराइच्चकहा' जैसा बड़ा धर्मकथा ग्रन्थ रचा, वहीं व्यंग्यप्रधान धूर्ताख्यान जैसे कथा ग्रन्थ की भी रचना की। इतना ही नहीं इन्होंने जैनागम ग्रन्थों की टीकाओं में से दशवैकालिक टीका में लगभग तीस तथा उपदेशपद नामक स्वतन्त्र ग्रन्थ में लगभग सत्तर प्राकृत कथायें दी हैं। वस्तुत: आगमों का टीका साहित्य कथाओं तथा दृष्टान्तों का अक्षय भण्डार है। ये टीकायें संस्कृत में होने पर भी इनका कथाभाग प्राकृत में ही उपलब्ध है। 'उपदेशपद' जैसे महान् ग्रन्थ के माध्यम से आचार्य हरिभद्रसूरि ने प्राकृत कथा साहित्य की श्रीवृद्धि में योगदान दिया है। 'उपदेशपद'३ धर्मकथा अनुयोग के अन्तर्गत प्राकृत आर्या छन्द की १०४० गाथाओं में रचित एक अति महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525037
Book TitleSramana 1999 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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