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________________ श्रमण / अप्रैल-जून/ १९९९ आयुर्वेदशास्त्र और उसके मौलिक सिद्धान्तों का पर्याप्त ज्ञान उन्हें था। उन्होंने यशस्तिलक चम्पू में पर्याप्त रूप से इन विषयों की विवेचना की है तथा साधिकार उनका प्रतिपादन किया है, जो आयुर्वेद की दृष्टि से निश्चय ही महत्त्वपूर्ण है। १८ आयुर्वेद के अनुसार उचित मात्रा और परिणाम में सेवन किया गया आहार अमृत तुल्य होता है, जबकि अधिक मात्रा में सेवित हितकारी पदार्थ भी विषतुल्य हो जाते हैं। सोमदेव ने जल का सेवन इसी प्रकार अमृत और विष की भाँति बतलाया है। अर्थात् उचित समय पर उचित मात्रा में दिया गया जल अमृत है और अनुचित समय में अव्यवस्थित रूप से दिया गया जल विष की भाँति हानिकारक है। अतः खान-पान में समय, मात्रा आदि का ध्यान रखना अत्यन्त आवश्यक है। वे लिखते हैं अमृतं विषमिति चैतत्सलिलं निगदन्ति विदिततत्त्वार्थाः । युक्त्या सेवितममृतं विषमेतदयुक्तितः पीतम् ।। ( यशस्तिलक, ३/३६९) सेवन योग्य पथ्य जल और त्याज्य जल का निर्देश करते हुए ग्रन्थकार ने जल सम्बन्धी अपने परिष्कृत ज्ञान का परिचय दो श्लोकों में निम्न प्रकार से दिया है। ----- अव्यक्तरसगन्धं यत्स्वच्छं वातातपाहतम् । प्रकृत्यैवाम्बु तत्पथ्यमन्यत्र क्वथितं पिबेत् । । ३७१ ।। सूर्येन्दुसंसिद्धमहोरात्रात्परं त्यजेत् । वारि दिवासिद्धं निशि त्याज्यं निशिसिद्धं दिवा त्यजेत् ।। ३७२ ।। अर्थात् जिसका रस व गन्ध अव्यक्त (प्रकट रूप से नहीं जाना जाता) हो, जो स्वच्छ हो, वायु और आतप (धूप) से आहत हो, वह जल स्वभाव से ही पथ्य होता है। इससे विपरीत अर्थात् व्यक्त रस और गन्ध वाला मलिन तथा वायु और आतप से अनाहत जल उबाल कर पीना चाहिये। इसी प्रकार दिन में उबाला हुआ जल रात्रि में नहीं पीना चाहिए (केवल दिन में ही पीना चाहिये) और रात्रि में उबाला हुआ जल दिन में नहीं पीना चाहिये (केवल रात्रि में ही पीना चाहिये) । यहाँ पर एक विशेष प्रकार के जल का उल्लेख किया गया है जो "सूर्येन्दु संसिद्ध जल' कहलाता है। इसकी विधि यह है कि जल से भरा हुआ घड़ा पहले दिनभर धूप में खुला हुआ रखना चाहिये और पश्चात् रातभर चन्द्र किरणों में खुला रखना चाहिये । इस प्रकार दिन में सूर्य की किरणों से सन्तप्त और रात्रि में चन्द्र किरणों से शीतल जल सूर्येन्दु संसिद्ध जल कहलाता है। इस जल का सेवन अगले दिन - रातभर करना चाहिये, उसके पश्चात् वह त्याज्य है। आयुर्वेदशास्त्र में इस जल को "हंसोदक" जल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525037
Book TitleSramana 1999 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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