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________________ साहित्य-सत्कार : १८९ महान् उपकार किया है। पुस्तक के प्रारम्भ में ग्रन्थकार और टीकाकार का भी परिचय दिया गया है, जो ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। ऐसे लोकोपयोगी ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद और उसके प्रकाशन तथा नाममात्र के मूल्य पर वितरण के लिये अनुवादक एवं प्रकाशन दोनों ही साधुवाद के पात्र हैं। पुस्तक की साज-सज्जा सामान्य तथा मुद्रण त्रुटिरहित है। प्रका० प्रकृति परिचय संकलन- सम्पादन- ब्र० विनोद जैन और ब्र० अनिल जैन; श्री दिगम्बर साहित्य प्रकाशन, बरेला (जबलपुर); प्राप्ति स्थान- श्री दिगम्बर साहित्य प्रकाशन, द्वारा जैन स्टोर्स, जैन मन्दिर के सामने, बरेला, जबलपुर ( म०प्र० ); प्रथम संस्करण १९९८ई०; आकार - डिमाई; पृ० १६ + ११२; मूल्य- २२/- रुपये मात्र । आत्मा और कर्म प्रकृतियों का अनादिकाल से सम्बन्ध चला आ रहा है। कर्म प्रकृतियों की कुल संख्या ८ और इसके उत्तर प्रकृतियों की संख्या १४८ है । अलग-अलग कर्म प्रकृतियों के आत्मा के साथ बन्धन होने पर उनका भिन्न-भिन्न रूप • में परिणमन होता है। जैनधर्म के विभिन्न ग्रन्थों में इस सम्बन्ध में विशद् विवरण प्राप्त होता है। कर्म प्रकृति की व्याख्या दिगम्बर परम्परा के प्रमुख ग्रन्थों- धवला, राजवार्तिक, सर्वार्थसिद्धि, जीवकाण्ड, कर्मकाण्ड आदि में मिलती है। प्रस्तुत पुस्तक में उक्त ग्रन्थों से कर्म प्रकृति की परिभाषायें इकत्र कर संकलित की गयी हैं साथ ही उनका हिन्दी अनुवाद भी दिया गया है। युवा विद्वानों ने इस संकलन और अनुवाद को तैयार करने में पर्याप्त श्रम किया है जिसके लिये वे बधाई के पात्र हैं । पुस्तक का मुद्रण त्रुटिरहित व साज-सज्जा सामान्य है । यह पुस्तक प्रत्येक जैनधर्मानुयायी के लिये पठनीय और मननीय है। Life of Mahavira By Manik Chand Jian, B.A., Published by, The Academic Press, Gurgaon, 122001, Haryana, Reprint 1985, Size- Dimy; pp. 26 + 89. Prise Rs. 45. आंग्ल भाषा में खंडवा निवासी श्री मणिकचन्द जी जैन द्वारा लिखित इस पुस्तक का सर्वप्रथम प्रकाशन इण्डियन प्रेस, इलाहाबाद द्वारा सन् १९०८ में हुआ था। आंग्ल भाषा में अत्यन्त प्रामाणिक रूप में लिखित होने से यह पुस्तक अपने समय में अत्यन्त लोकप्रिय सिद्ध हुई और आज भी इसकी मांग बनी हुई थी इसे देखते हुए आफसेट द्वारा पुस्तक का पुनर्मुद्रण किया गया है। ऐसे प्रामाणिक और उपयोगी ग्रन्थ के पुनर्मुद्रण हेतु प्रकाशक बधाई के पात्र हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525037
Book TitleSramana 1999 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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