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________________ १०८ : श्रमण/अप्रैल-जून/१९९९ लोक के सबसे ऊपरी हिस्से से कुछ नीचे अर्थात् ग्रीवा स्थान में कल्पातीत विमान स्थित हैं। इनमें ५ अनुत्तर विमान, नौ अनुदिश विमान तथा नौ ग्रैवेयक विमान हैं। ३३ इन अकृत्रिम विमानों में कामवासना शून्य तथा ज्ञानवैराग्य प्रधान देवता निवास करते हैं। ३४ इन कल्पातीत देवताओं की तुलना पुराणों की तपोलोकवासी, वैराग्यप्रधान वैराज नामक देवताओं से की जा सकती है।३५ सबसे ऊपर सिद्धलोक अवस्थित है इसमें सिद्धात्माएँ निवास करती हैं, ये आत्माएँ सभी प्रकार के कर्मावरणों तथा शरीरादि से पूर्णत: रहित हैं। ये सब अनन्त सुख, बल, ज्ञान और वीर्य से युक्त हैं। उनका पुनर्जन्म नहीं होने वाला है। ३६ जैनदर्शन के अनुसार जितने जीव सिद्ध होते हैं उतने जीव निगोद से पृथ्वी पर आ जाते हैं जिससे लोक में जीवों की कमी नहीं होती है। ___ अन्तिम द्रव्य काल है। काल अनादि अनन्त माना गया है। जैनदर्शन के अनुसार भरत और ऐरावत क्षेत्र में अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी नामक छ: काल परिवर्तन होते हैं। ये परिवर्तन सतत् चलते हैं। इन दोनों के छ: - छ: भेद किये गये हैं जिन्हें आरा कहा जाता है। ये हैं - १. सुषमासुषमा, २. सुषमा, ३. सुषमादुषमा, ४. दुषमासुषमा, ५. दुषमा, ६. अतिदुषमा। अवसर्पिणी काल में यह ऊपर से नीचे और उत्सर्पिणी काल में नीचे से ऊपर परिवर्तित होता है, इनका प्रवर्तन रहट-घट न्याय अथवा शुक्ल-कृष्ण पक्ष के समान होता रहता है।३७ इन छ: विभागों में अवसर्पिणी काल के प्रथम तीन विभाग सुषमासुषमा, सुषमा तथा सुषमादुषमा एवम् उत्पसर्पिणी के अन्तिम यही तीन भोग भूमि कहलाते हैं शेष कर्मभूमि है। भोगभूमि काल में मनुष्यों की इच्छाओं की पूर्ति १० प्रकार के कल्पवृक्षों से होती है। काल के इन द्विविध प्रवर्तनों के कारण भरत तथा ऐरावत क्षेत्र के मनुष्यादि की आयु, शरीर की ऊँचाई तथा अनुभव में वृद्धि तथा ह्रास (उत्सर्पण एवम् अवसर्पण) होता रहता है। ३८ पर इनका अन्त कभी नहीं होता, अन्तिम आरा दुषमादुषमा में मनुष्य और अन्य जीवों की स्थिति अत्यन्त हीनावस्था में आ जाती है। वे बिलों में निवास करने वाले और कीचड़ आदि खाने वाले हो जाते हैं। अगले काल-चक्र में उनका पुनः विकास होने लगता है, जो बढ़ते-बढ़ते सुषमा-सुषमा काल में यौगलिक अवस्था तक पहुँचते हैं, जब लोगों को बिना कोई कर्म किये काल के प्रभाव से सभी इच्छाओं की पूर्ति विभिन्न प्रकार के कल्पवृक्षों से होने लगती है। ___ इस लोक में ये छः द्रव्य एक दूसरे में प्रविष्ट हुए जान पड़ते हैं। पर वे तात्त्विक दृष्टि से अलग-अलग हैं। वे न तो किसी एक तत्त्व से उत्पन्न हुए हैं, और न ही एक तत्त्व में विलीन होने वाले है, वे अनादि काल से आपस में मिले होने पर भी आपस में मिलने वाले नहीं हैं। भविष्य में भी अन्योन्य सप्लव नहीं होंगे।३९ इन छ: द्रव्यों के आपसी सहयोग से यह सृष्टि अनवरत गतिवान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525037
Book TitleSramana 1999 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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