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कांगड़ा के ऐतिहासिक किले में श्री अम्बिका माता का पावन पीठ
महेन्द्र कुमार 'मस्त'*
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प्राचीन काल से वर्तमान तक, वैभव व गरिमा के प्रतीक कांगड़ा किले के मन्दिर व भग्नावशेष, हमारे गौरवपूर्ण इतिहास की यादगार हैं।
अपने अतीत से विक्रम की १७ वीं सदी तक हिमाचल के कई आंचलिक नगर हिंदू व जैन मन्दिरों से सुशोभित थे। पिंजौर, नादौन, नूरपुर, कोठीपुर (कोटिलग्राम), गुलेर, पालमपुर और ढोलबाहा से मिले चिन्ह, तीर्थंकर प्रतिमाएं व मंदिरों के अवशेष इस गौरवपूर्ण इतिहास की साक्षी हैं।
सन् १८७५ के आसपास भारतीय पुरातत्त्व के पितामह सर कनिंघम ने कांगड़ा आदि क्षेत्रों का दौरा किया था। उनकी रिपोर्ट में कांगड़ा किले में भगवान् पार्श्वनाथ के जैन मन्दिर में तीर्थंकर ऋषभदेव की प्रतिमा व माता श्री अंबिका देवी के पावन पीठ होने का उल्लेख है।
पाटन के हस्तलिखित ग्रन्थ भण्डारों का निरीक्षण करते हुए मुनि जिनविजय जी को सन् १४२७ का लिखा 'विज्ञप्तित्रिवेणी' नाम का लघुग्रंथ मिला। इसमें आचार्य जिनराजसूरि के शिष्य उपाध्याय मुनि जयसागर की निश्रा में फरीदपुर (सिंध) नामक स्थान से एक यात्री संघ द्वारा नगरकोट कांगड़ा की यात्रा करने का विस्तृत विवरण है। रास्ते के स्थानों में निश्चिन्दीपुर, जालन्धर, देवपालपुर (ढोलबाहा), विपाशा (व्यास) नदी, हरियाणा (होशियारपुर के पास कस्बा) व कांगड़ा नगर में भगवान् शांतिनाथ का मंदिर महावीर स्वामी का मन्दिर और किले के मन्दिरों के वृतान्त व दर्शन पूजन का उल्लेख है। इसी वृतान्त में ही किला कांगड़ा में यात्री संघ द्वारा माता अम्बिका की पूजा का भी उल्लेख है। उस समय कांगड़ा के शासक राजा नरेन्द्रचन्द्र थे, जिनका कुल सोमवंशीय (चन्द्रवंशी) था। उपाध्याय जयसागर के ही द्वारा रचित- “नगरकोट चैत्य परिपाटी” (गाथा १०) के अनुसार यह राज परिवार श्री अम्बिका देवी का उपासक था।
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अम्बिकादेवि पसाइ तहिं मन वंछित फल मिलई साहित्य वाचस्पति श्री भंवरलालजी नाहटा ने 'विज्ञप्तित्रिवेणी' का जो हिन्दी अनुवाद प्रकाशित किया है, उसके अनुसार 'यह (कांगड़ा) महातीर्थ श्री नेमिनाथ *"देवदर्शन' ३२०, इण्डस्ट्रियल एरिया - II, चण्डीगढ़