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________________ जैन विद्या के विकास के हेतु रचनात्मक कार्यक्रम श्री दुलीचन्द जैन* जैन विद्या के प्रचार की आवश्यकता आज जैन विद्या के प्रचार की आवश्यकता प्रत्येक व्यक्ति महसूस कर रहा है। वस्तुतः प्रचार प्रसार में हम लोग बहुत पिछड़े हुए हैं। विश्व में ईसाई, इस्लाम, वैदिक और बौद्ध आदि धर्मों का व्यापक प्रचार हुआ है। हजारों लोग उनके प्रचारप्रसार में लगे हुए हैं तथा अरबों रूपये व्यय हो रहे हैं। जैन धर्म का प्रचार प्रसार हमने साधु-साध्वियों पर छोड़ दिया है। ये साधु संत जैन जीवन पद्धति के साकार रूप हैं, देश भर में छोटे-छोटे ग्रामों से लेकर बड़े नगरों तक ये धर्म का प्रचार कर रहे हैं। लेकिन इनकी अपनी मर्यादाएं हैं, ये अपनी आत्म-साधना में निमग्न रहते हैं, किसी भी प्रकार के वाहन का उपयोग नहीं करते तथा देश के बाहर भ्रमण नहीं करते। जैन गृहस्थों ने पूर्वकाल में धर्म का व्यापक प्रचार किया था। जैन धर्म उस समय जनधर्म बना था। विदेशों में भी इसका व्यापक प्रचार हुआ था। श्रीलंका, वर्मा, जावा, सुमात्रा, हिंदचीन, जापान, चीन तथा मध्य एशिया में ईरान, ईराक इत्यादि में जैन धर्म फैला था। जैन श्रावकों द्वारा बड़ी-बड़ी नौकाओं व जहाजों द्वारा विदेशों में भ्रमण की अनेक गाथाएं हमारे पुराणों में मिलती हैं। वे लोग विदेशों में भी धर्म की चर्या का पालन करते थे तथा धनोपार्जन के साथ-साथ धर्म का भी प्रचार करते थे। लेकिन हमारा आधुनिक जैन समाज मात्र अर्थ और काम की उपासना में लगा हुआ है, धर्म के प्रचारक बहुत कम हैं। महाकवि भृर्तहरि की यह सूक्ति वर्तमान जैन समाज पर पूर्णतया सही लागू होती है। "यक्याक्ति वित्तं स नरः कुलीनः स पण्डितः स श्रुतवान गुणज्ञः । स च वक्ता, स च दर्शनीयः, सर्वे गुणा कांचनमाश्रयन्ति ।।" वही अर्थात् जिसके पास धन है, वही इस संसार में उत्तम कुल वाला है, विद्वान् है, वही ज्ञानवान है, वही श्रेष्ठ वक्ता है और वही दर्शनीय है। संक्षेप में जिसके पास धन है, वही सब गुणों का आगार है । श्रेष्ठी एवं महाजन लेकिन यह हमारी प्राचीन जैन परंपरा के विपरीत है। हमारे श्रावक* मंत्री, जैन विद्या अनुसन्धान प्रतिष्ठान, चेन्नई.
SR No.525036
Book TitleSramana 1999 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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