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श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९९ प्रस्तुत ग्रन्थ की पाण्डुलिपि का परिचय
___ 'जोगरत्नसार' नामक प्रस्तुत लघुग्रंथ की पाण्डुलिपि पार्श्वनाथ विद्यापीठ के पुस्तकालय में संरक्षित है। प्रस्तुत पाण्डुलिपि में कुल १० पत्र (२० पृष्ठ) हैं। प्रथम पृष्ठ को छोड़कर इनके दोनों ओर लिखा गया है। प्रत्येक पत्र की लम्बाई ९ इंच और चौड़ाई ५ इंच है। पत्र के चारों ओर १ इंच जगह छोड़कर बीचों-बीच लिपिबद्ध किया गया है। प्रत्येक पृष्ठ में १०-१० पंक्तियाँ हैं। प्रत्येक पंक्ति में १२ से १५ तक शब्द हैं। इस ग्रन्थ को देखने-पढ़ने से यह पुरानी हिन्दी भाषा का पद्यमय मूल ग्रंथ लगता है किन्तु इसका गहराई से अध्ययन करने से यह स्पष्ट होता है कि यह ग्रन्थ प्राकृत या संस्कृत का हिन्दी पद्यानुवाद है, जो कवि द्वारा चौपाई और दोहा छन्दों के निबद्ध किया गया है । ग्रन्थानुसार इसमें कुल ४६ पद हैं; जिनमें २३ दोहरा है, जो प्रत्येक ९ से १० तक की पक्तियों के पद (चौपाई-छंद में रचित) के बाद लिखे गये हैं। लिपि स्पष्ट होते हुए भी दुरूह है, अशुद्धियाँ भी भरपूर हैं। ग्रन्थनाम
पत्र के प्रत्येक हाशिये पर 'जोगरत्नसार' ग्रन्थ का नाम लिखा है तथा कृति के ४५ वें पद में ग्रन्थ का नाम 'रत्नजोग' तथा विषय 'अष्टांग जोग' का उल्लेख किया गया है। कृति के अंत में “इति श्री रत्नजोग शास्त्र भाषा समाप्त" लिखकर समापन है। अत: प्रस्तुत पाण्डुलिपि संस्कृत या प्राकृत ग्रन्थ का हिन्दी पद्यानुवाद प्रतीत होती है। फिर भी इसमें प्रतिपाद्य विषय के अनुसार इस कृति का उपयुक्त नाम "जोगरत्नसार' (योगरत्नसार) ही होना चाहिए। लेखक एवं समय
इस कृति में रचनाकार का कहीं स्पष्टीकरण नहीं है। परन्तु कृति के ४३वें पद की तीसरी-चौथी पंक्ति के या अन्य उल्लेखों के अनुसार 'मगन' नाम सम्भवतः रचनाकार का ही लगता है। इसी प्रकार कवि ने अपने गुरु 'पूरणस्वामी' के नाम का उल्लेख मंगलाचरण के अतिरिक्त और भी कई जगह किया है। किन्तु निश्चित न होने से इस लघु ग्रन्थ को अज्ञात कृर्तृक ही मानकर चल रहे हैं। ग्रन्थ का आरम्भ "ॐ श्री जिनाय नमः" से किया गया है। परन्त विषय की दृष्टि से यह ग्रन्थ "जैनयोग" से सम्बन्ध नहीं लगता। अत: स्पष्ट है कि यह ग्रन्थ अष्टांग योग से संबंधित है उसमें भी हठयोग का स्पष्ट प्रभाव इस पर है। इसकी भाषा सहज, सरल और गेय रूप है। और हिन्दी साहित्य के मध्यकाल जैसी प्रतीत होती है अत: इसका समय भी १८ वीं के आस-पास माना जा सकता है।
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