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नागपुरीयतपागच्छ का इतिहास
शिवप्रसाद निम्रन्थ परम्परा के श्वेताम्बर सम्प्रदाय में पूर्वमध्यकाल और मध्यकाल में उद्भूत विभिन्न गच्छों में नागपुरीयतपागच्छ (नागौरी तपागच्छ) भी एक है। जैसा कि इसके अभिधान से स्पष्ट होता है कि यह गच्छ तपागच्छ की एक शाखा के रूप में अस्तित्त्व में आया होगा, किन्तु इस गच्छ की स्वयं की मान्यतानुसार बृहद्गच्छीय आचार्य वादिदेवसूरि ने अपने चौबीस शिष्यों को एक साथ आचार्य पद प्रदान किया, जिनमें पद्मप्रभसूरि भी एक थे। पद्मप्रभसूरि द्वारा नागौर में उग्र तप करने के कारण वहां के शासक ने प्रसन्न होकर उन्हें नागौरीतपा विरुद् प्रदान किया। इस प्रकार उनके नाम के साथ नागौरीतपा शब्द जुड़ गया और उनकी शिष्य सन्तति नागपुरीयतपागच्छीय कहलायी। इसी गच्छ से आगे चल कर १६वीं शताब्दी में पार्श्वचन्द्रगच्छ अस्तित्व में आया और आज भी उस गच्छ के अनुयायी श्रमण-श्रमणी विद्यमान हैं।
नागपुरीयतपागच्छ से सम्बद्ध ग्रन्थ प्रशस्तियों एवं पट्टावलियों में यद्यपि इसे वि० सं० ११७४/ई० सन् १११८ में बृहद्गच्छ से उद्भत बतलाया गया है, किन्तु इस गच्छ से सम्बद्ध उपलब्ध साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्य विक्रम सम्वत् की १६ वी १७ वीं शताब्दी से पूर्व के नहीं हैं। नागपुरीयतपागच्छ का उल्लेख करने वाला सर्वप्रथम साक्ष्य है वि० सं० १५५१/ई० स०१४९५ में प्रतिष्ठापित शीतलनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख। महोपाध्याय विनयसागर ने इस लेख की वाचना दी है। जो इस प्रकार है
सं० १५५१ व० मा० २ सोमे उ० ज्ञा० सोनीगोत्रे सां० चांपा भा० चांपलदे पु० हया रामा हृदा पितृनि० आ० श्रे० श्री शीतलनाथ बिं० कारि० प्रति० नागरी (नागपुरीय) तपाग० भ० सोमरत्नसूरिभिः।।। प्रतिष्ठा स्थान - ऋषभदेव जिनालय, मालपुरा
आदिनाथ जिनालय, नागौर में एक शिलापट्ट पर उत्कीर्ण वि० सं० १५९६ का एक खंडित अभिलेख प्राप्त हुआ है। इस अभिलेख में राजरत्नसूरि और उनके शिष्य रत्नकीर्तिसरि का नाम मिलता है। लेख का मूलपाठ इस प्रकार है:
॥ॐ।। स्वास्तिश्रीसंवत् १५९६ वर्षे फाल्गुन मासे शुक्लपक्षे नवमी तिथौ सोमवारे नागपुरकोटे श्रीमालवंशे संकियाप्य (?) गोत्रे सं० नोल्हा पु० सं० चूहड़ सं० लक्ष्मीदास सं० भवानी सं० लक्ष्मीदास भार्या सं० सरूपदे नाम्नी है............
.................श्रीराजरत्नसूरिपट्टे सं० श्रीरत्नकीर्तिसूरि प्रतिष्ठिता ।। ..............................................। * प्रवक्ता, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी ।