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७९ मणिधारी जिनचन्द्रसूरि काव्यांजलि, रचयिता पं० बेचरदास दोशी, पार्श्वनाथ विद्याश्रम लघु प्रकाशन : ३, वाराणसी १९८० ई०, प्रस्तावना (लेखकमहो० विनयसागर) पृष्ठ-११. ........अथ जिनवर्धनसूरयो अथ जिनवर्धनसूरयो व्यंतरप्रयोगेण ग्रथिणीभूता: संत: पिप्पलग्रामे गत्वा स्थिताः, कियंत: शिष्याः पार्श्वे स्थितवंतः। मुनि जिनविजय, संपा०, खरतरगच्छपट्टावलीसंग्रह, कलकत्ता १९३२ ई०, पृष्ठ-३२. इसी संग्रह में प्रकाशित खरतरगच्छ की एक अन्य पट्टावली में भी इसी प्रकार की सूचना है। द्रष्टव्य- पृष्ठ-५५. अगरचन्द भंवरलाल नाहटा, संपा०, ऐतिहासिकजैनकाव्यसंग्रह, श्री अभय जैन ग्रन्थमाला, पुष्प ८, कलकत्ता वि० सं० १९९४, पृष्ठ३१९-२०. H.D. Velankar, Ed. Jinaratnakosha, Poona 1944 A.D., P-415. Ibid, P-347 मोहनलाल दलीचंद देसाई, जैनगूर्जरकविओ, भाग १, नवीन संस्करण, संपा० डॉ० जयन्त कोठारी, अहमदाबाद १९८६ ई०स०, पृष्ठ-४४८-४४९. पूरनचंद नाहर, संपा०, जैनलेखसंग्रह, भाग ३, लेखांक २४३२. मुनि विद्याविजय, संपा०, प्राचीनलेखसंग्रह, लेखांक १०४. मणिधारीजिनचन्द्रसूरिकाव्यांजलि, प्रस्तावना, पृष्ठ-१५-२०. मुनि विद्याविजय, पूर्वोक्त, लेखांक १३८-१३९. एवं विनयसागर, संपा०, प्रतिष्ठालेखसंग्रह, कोटा १९५३ ई०स०, लेखांक २५८. विनयसागर, वही, लेखांक २५८. जैनगर्जरकविओ, नवीन संस्करण, भाग-१, मष्ठ-४३९-४०. । प्राचीनलेखसंग्रह, लेखांक १५१, १५२, १५३, १६३, १६५, १६८, १७०, २८६. प्रतिष्ठालेखसंग्रह, लेखांक ३१२, ३१३, ३३५, ३४०. मुनि बुद्धिसागर, संपा०, जैनधातुप्रतिमालेखसंग्रह, भाग १, पादरा १९२४ ई०स०, लेखांक ५२६, ११०४, ११८०. मुनि कांतिसागर, संपा०, जैनधातुप्रतिमालेख, प्रथम भाग, श्रीजिनदत्तसूरि प्राचीन पुस्तकोद्धार फंड, ग्रन्थांक ६०, सूरत १९५० ई०स०, लेखांक