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________________ ७५ खरतरगच्छ-पिप्पलकशाखा का इतिहास जिनरत्नसूरि का ही उल्लेख किया है जिनवर्धनसूरि जिनसिंहसूरि जिनरत्नसूरि जिनवर्धमानसूरि (वि० सं० १७१०/ई०स० १६५४ में धन्नाऋषिचौपाई के रचनाकार) जिनवर्धमानसूरि के पट्टधर जिनधर्मसूरि (आचार्य पद वि०सं० १७५७) हुए। वि० सं० १७९५/ई० सन् १७३९ में रचित शिवचन्द्रसूरिरास३३ से ज्ञात होता है कि वि०सं० १७७६/ई०स० १७२० में उदयपुर में इनका देहान्त हुआ, तत्पश्चात् इनके शिष्य जिनशिवचन्द्रसूरि (आचार्य पद वि०सं० १७८६) पिप्पलकशाखा के नायक बने। इन्होंने शत्रुञ्जय, गिरनार तथा पूर्व भारत के विभिन्न तीर्थस्थानों की यात्रायें की। शाह लाधा द्वारा रचित उक्त श्रीजिनशिवचन्द्रसरिरास से इनके बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है।३४ वि०सं० १७९४ में ये खम्भात पधारे। किसी विधर्मी व्यक्ति के कहने से वहां के यवन शासक ने धन प्राप्त करने के उद्देश्य से इन्हें कठोर शारीरिक वेदना पहंचायी, जिससे असमय में ही इनकी मृत्यु हो गयी और इसके साथ ही साथ पिप्पलकशाखा का अस्तित्त्व भी सदैव के लिये समाप्त हो गया। उक्त साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर इस शाखा के मुनिजनों के गुरु-शिष्य परम्परा की एक तालिका का पुनर्गठन किया जा सकता है, जो इस प्रकार है द्रष्टव्य-तालिका क्रमांक-१ वि०सं० १६१७ में सोमचन्द्रराजाचौपाई के रचनाकार मुनि विनयसागर३५ भी पिप्पलकशाखा से ही सम्बद्ध थे। उक्त कृति की प्रशस्ति में उन्होंने अपनी गुरु-परम्परा दी है, जो इस प्रकार है
SR No.525033
Book TitleSramana 1998 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Singh, Shivprasad, Shreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1998
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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