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खरतरगच्छ-पिप्पलकशाखा का इतिहास
७.३
१५८९) हुए। इनके द्वारा रचित कोई कृति नहीं मिलती। ठीक यही बात इनके शिष्य जिनकीर्ति (आचार्य पद वि०सं० १५९६), प्रशिष्य जिनसिंहसूरि (आचार्य पद वि० सं० १६०९) आदि के बारे में भी कही जा सकती है। जिनसिंहसूरि के पट्टधर जिनचन्द्रसूरि 'तृतीय' (आचार्य पद वि० सं० १६३१) हुए, जो वि० सं० १६६९ / ई०स० १६१३ तक विद्यमान थे।२९ जिनसिंहसूरि के एक अन्य शिष्य गुणलाभ हुए जिन्होंने वि० सं० १६५७ में जीभरसाल नामक कृति की रचना की । ३०
जिनचन्द्रसूरि 'तृतीय' के पट्टधर जिनरत्नसूरि (आचार्य पद वि०सं० १६८२) हुए। इनके गुरुभ्राता राजसुन्दर ने वि०सं० १६६९/ई०स० १६१३ में खरतरगच्छपिप्पलकशाखा की गुरुपट्टावलीचउपड़ १ की रचना की। इसमें उन्होंने उद्योतनसूर से लेकर अपने गुरु जिनचन्द्रसूरि 'तृतीय' तक की परम्परा दी है, जो निम्नानुसार है:
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उद्योतनसूरि I वर्धमानसूरि
जिनेश्वरसूरि
जिनचन्द्रसूरि
अभयदेवसूरि
जिनवल्लभसूरि
जिनदत्तसूरि
जिनचन्द्रसूरि
जिनपतिसूरि
जिनेश्वरसूरि
जिनप्रबोधसूरि
जिनचन्द्रसूरि
जिनकुशलसूरि
जिन पद्मसूरि
जिनलब्धिसूरि