________________
स्वयं की अनेकान्तमयी समझ से तनावमुक्ति आत्मा के कई गुण आत्मा के साथ सदैव रहते हैं किन्तु अचेतन पदार्थों से भिन्नता दर्शाने वाले आत्मा के दर्शन एवं ज्ञान गुणों का कथन प्रधानता से किया जाता है।
अपनी आत्मा के स्थायी परिचय को बताने वाली आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा रचित . निम्नांकित पंक्तियां बहुत सुन्दर हैं
अहमिक्को खलु सुद्धो दंसणणाणमइओ सदारूवी। णवि अस्थि मज्झ किंचिवि अण्णं परमाणुमित्तपि।।
इसका भावार्थ यह है कि मैं सदैव एक हूँ, शुद्ध हूँ, दर्शन ज्ञानमय हूँ, अरूपी हूँ; किंचित्मात्र भी अन्य पदार्थ परमाणुमात्र भी मेरा नहीं है।
इसी स्थायी परिचय की तरफ ध्यान दिलाते हुए आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं। शुद्धः शुद्ध स्वरसभरतः स्थायिभावत्वमेति।
अर्थात् यह आत्मा शुद्ध है, निजरस से परिपूर्ण है व स्थायीभावत्व को प्राप्त है।
इन्हीं आचार्य की निम्नांकित पंक्ति५ भी अत्यन्त मनोहारी हैशुद्धं चिन्मयमेकमेव परमं ज्योतिः सदैवास्म्यहम् । ..
अर्थात् मैं तो सदा शुद्ध चैतन्यमय एक परमज्योति ही हूँ। आत्मा या स्वयं के संबन्ध में निम्नांकित उद्धरण भी विचारणीय है:
श्रीमद्भगवद्गीता में अर्जुन को श्रीकृष्ण निम्न रूप से समझाते हैं कि वह कौन हैइन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः। मनसस्तु परा बुद्धियों बुद्धेः परतस्तु सः।।
इसका भावार्थ यह है कि शरीर से परे इन्द्रियां, इन्द्रियों से परे मन और मन से परे बुद्धि है एवं इस बुद्धि से परे 'वह' यानी आत्मा है।
रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदासजी स्थायी परिचय को ‘परमार्थ' एवं बदलते हुए परिचय को माया बताते हुए कहते हैं
योग वियोग भोग भल मंदा, हित अनहित मध्यम भ्रम फन्दा। जन्म मरण जंह लगि जग जालू, संपति विपति कर्म अरु कालू।। धरणि धाम धन पुर परिवारू, स्वर्ग नरक जंह लगि व्यवहारू।