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१०० श्रमण / जनवरी-मार्च १९९८
दोहा
असि ही तपत माहि, गिर सिखर ठाडे ध्यान असे ऋषिराज सार, चिरंजी जो नमत है ॥ ३०॥
पावस की रुत आवे, घटा चहुं ओर छावे, बिजली नो चमकावे, काली घटा भारि है। उमग के घटा आवे, जल की जो बरखा छावे, जल-थल एक थावे, पानी पडे भारि है। औसि जो बरसा की माहि, तपोधन धरे ध्यान, गिर की गुफा में जाय, मौन व्रत धारि है । दिशा वस्त्र' अंगधार, सील ही की सेज्या धार, तप ही जो धन माल, ताको दिष्ट धारि है || ३१ ॥
यह तीनों मोसम जान, मुनि कर्म से लडत हैं । तन की ममता त्याग, सुध आत्मपद धरत हैं ॥ ३२॥
- इति चिरंजीलालकृत सवैया समाप्तं
पाण्डुलिपि के अन्तिम पत्र के एक ओर रचना समाप्त की सूचना कर दी गई है। पत्र के दूसरी ओर लिखित भूधरदासजी कृत यह पद लिपि बद्ध किया गया है। जो सम्भवतः अभी तक प्रकाशित पदों में नहीं देखा गया।
पद
अपना ।
संसारा || खलक ० ॥ १
खलक एक रेन का सुपना, समज देखो कोण है कठन हए लोभ की धारा बहा सब जात घड़ा जेसे नर का फूटा, पात जिम डाल से छूटा ।
समज नर ऐसी जिंदगाणी, अबी तुं चेत उभ्रम भूलो मत देख तन गोरा, जगत में जीव तजो मद लोभ- चतुराई, रहो निरसंक जग सजन परवार सुत दारा, सबी उस रोज होय न्यारा, निकल जब प्रान जावेगे, नही कोई काम आवेगे || खलक ० ॥४ सदा जिनराज को झाउं, कर जोड़ी चरण चित लाउं ।
माहीं ॥ खलक ० ॥ ३
१. दिगम्बर
मानी ॥ खलक ० ॥ २
नायेझि ।
कटे जब जनम की वेडी, कहे "भूधरदास" कर जोडी || खलक ० ॥ ५ ॥ इति ॥