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जर्मन जैन श्राविका डॉ० शेर्लोट क्राउझे : 85
* लगे थे। सन् १६२५ में लेपज़िग की पत्रिका Asia Major (Phil. Hab. Schrift Vol Jun. 1923) में " नेसकेतरी कथा - एक राजस्थानी कहानी" व्याकरण की पूर्ण जानकारी के साथ छपी है। इसी कहानी पर डॉ० क्राउझे ने पी-एच०डी० की उपाधि प्राप्त की थी । सन् १९२५ में भारत आने के बाद इनके लेख गुजराती, हिन्दी और अंग्रेजी में, कलकत्ता रिव्यू जैनसत्यप्रकाश, अनेकान्त आदि पत्रिकाओं में छपे । सन् १६४४ में सिंधिया सरकार ने “विक्रमस्मृतिग्रन्थ" नामक महाग्रन्थ प्रकाशित किया जिसमें “जैन साहित्य और महाकाल मंदिर" पर ३० पृष्ठ का आपका बृहत् लेख नई शोध दिशा के साथ हिन्दी में प्रकाशित हुआ । लेख के अंत में डॉ० क्राउझे ने लिखा है- “भारतीय संस्कृति के प्रगाढ़ प्रेम से प्रेरित होकर मैंने विदेशी होते हुए भी यह निबन्ध हिन्दी में ही लिखा, अतः यदि इसमें कुछ त्रुटियां रह गयी हों तो पाठक क्षमा करें, ऐसी प्रार्थना है - लेखिका ।" जैनसत्यप्रकाश में तो इनके लेख सदा गुजराती भाषा में छपते थे । सन् १६४८ में उज्जैन से प्रकाशित “विक्रम वाल्यूम" में डॉ० क्राउझे का “सिद्धसेन दिवाकर और विक्रमादित्य” नामक शोधपूर्ण लेख छपा। इसके अतिरिक्त आपके अनेक शोधपूर्ण लेख अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुये हैं । *
सन् १६५० के दिनांक ५ अक्टूबर के एक पत्र में पू० मुनिराज विद्याविजयजी ने मुझको लिखा
"डॉ० टैसीटोरी से भी कई गुनी सेवा जर्मन विदुषी डॉ० क्राउझे (सुभद्रा देवी ) ने की है और कर रही हैं। इनकी सेवा का कार्य इतना विशाल है कि जितना लिखा जाय, उतना कम है। इस समय ऐसी विदुषी की विद्वता का लाभ मध्य भारत सरकार काफी ले रही हैं। एज्यूकेशन डिप्टी डाइरेक्टर के ओहदे पर वह हैं। पांच सौ पच्चीस रुपये मिलते हैं। कोई हिन्दुस्तानी जो काम नहीं करता या नहीं कर सकता, वह काम डॉ० क्राउझे कर देती हैं और यशस्विनी बनती हैं।
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प्रस्तुत लेख के परिशिष्ट में इनके प्रकाशित लेखों की सूची दी जा रही है, जिसे मारबर्ग (जर्मनी) की डॉ० लिटगार्ड सोनी ने तैयार की है और वह स्वयं डॉ० क्राउझे पर शोधात्मक जीवन-परिचय जर्मन भाषा में लिखने जा रही हैं। गत वर्ष वह अपने भारतीय पति डॉ० जयेन्द्र सोनी के साथ भारत भ्रमण पर आई थीं। वे डॉ० क्राउझे के सम्बन्ध में पूर्ण जानकारी प्राप्त करने के लिये शिवपुरी - ग्वालियर, झाँसी, पूना और हस्तिनापुर गई थीं।
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