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________________ पंचकारणसमवाय और अनेकान्त : 79 शुद्धचैतन्यस्वरूप प्रदान करेगा, तो कर्मोदयरूप कारण शुद्धचैतन्यस्वभाव को नष्ट कर आत्मा को मोह-राग-द्वेष के साँचे में ढालेगा। इस प्रकार ये परस्परविरोधी स्वभाव वाले कारण आपस में तलवारें भाँजते रहेंगे और एक-दूसरे के कार्य की भ्रूण हत्या कर किसी भी कार्य को उत्पन्न न होने देंगे। एकान्तवादों का समवाय कारणविषयक पाँच एकान्तवादों को अपेक्षाभेद के बिना सामूहिक रूप से स्वीकार कर लेना अनेकान्तवाद नहीं है, सामूहिक एकान्तवाद है। अपेक्षाभेद के बिना उनकी एकान्तात्मकता नष्ट नहीं होती। काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत कर्म तथा पौरुष, इनमें से कोई भी जगत् के समस्त कार्यों का कारण नहीं है, सब भिन्न-भिन्न कार्यों के कारण हैं। अतः इनमें से प्रत्येक को जगत् के समस्त कार्यों का कारण स्वीकार कर लेना अपेक्षाभेद नहीं है, अपितु अपेक्षकत्व है जो विरोध का एकमात्र कारण है। वस्तुतः कारणैकान्तवादियों में विवाद तो इसी बात का है कि कालवादी काल को ही जगत् के समस्त कार्यों का कारण मानता है, स्वभाववादी स्वभाव को ही, नियतिवादी नियति को ही, कर्मवादी कर्म को ही तथा पौरुषवादी पौरुष को ही, और इस प्रकार ये एक-दूसरे के कारणत्व का निषेध करते हैं। अब यदि एक ही पुरुष अपेक्षाभेद के बिना इन पाँचों एकान्तवादों को मानने लगे तो परस्पर निषेधात्मक मतों का जमघट एक ही व्यक्ति के भीतर हो जायेगा। वह भले ही पाँचों को जगत् के कार्यों का कारण स्वीकार करे, किन्तु अपेक्षाभेद के बिना उनका परस्परनिषेधात्मक भाव समाप्त नहीं होगा। एक कारणैकान्त दूसरे का निषेध इसलिए करता है कि जिस कार्यविशेष को उत्पन्न करने की अपेक्षा उसका औचित्य है उस पर उसकी दृष्टि नहीं जाती। इसी प्रकार जिस कार्य विशेष को उत्पन्न न कर पाने की अपेक्षा स्वयं का कथंचित्त्व है उस पर भी दृष्टि नहीं जाती। अतः इस अपेक्षाभेद को उजागर किये बिना किसी भी कारण का औचित्य सिद्ध नहीं हो सकता और प्रत्येक कारण का औचित्य सिद्ध हुए बिना वे एक-दूसरे को स्वीकार्य नहीं हो सकते। अतः जब भिन्न-भिन्न कार्यों की अपेक्षा प्रत्येक का औचित्य प्रकट किया जायेगा, तभी इनकी परस्परनिषेधात्मक दृष्टि मिट सकती है और ये कारणैकान्त स्याद्वाद की माला में गुंथकर सम्यक् बन सकते हैं। ऐसा होने पर नियतिरूप कारण कर्मोदयजनित कार्यों का ही कारण सिद्ध होगा,' प्रत्येक कार्य का नहीं, जिससे एकान्तनियतिवाद का प्रसंग उपस्थित नहीं होगा। इसके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525032
Book TitleSramana 1997 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1997
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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