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________________ पंचकारणसमवाय और अनेकान्त : 77 इसी प्रकार श्री पद्मप्रभमलधारिदेव ने शुद्धचैतन्यभाव को कर्मोपाधि के बिना निष्पन्न होने के कारण परिणामभव अर्थात् स्वभावजन्य कहा है: “सकलकर्मोपाधिविनिर्मुक्तः परिणामे भवः पारिणामिकभावः।” (नियमसार। तात्पर्यवृत्ति, ४१) आचार्य कुन्दकुन्द ने रागादिभावों को स्वभाव से अनुद्भूत एवं कर्मोदयजन्य बतलाया है: जह फलिहमणी सुद्धो ण सयं परिणमइ रायमाईहिं। रंगिज्जदि अण्णेहिं दु सो रत्तादीहिं दव्वेहिं।। एवं णाणी सुद्धो ण सयं परिणमइ रायमाईहिं। राइज्जदि अण्णेहिं दु सो रागादीहिं दोसेहिं ।। समयसार, गाथा २७८-२७६. श्री उमास्वामी ने काल रूप कारण के बिना होने वाली निर्जरा को तपरूप पौरुष से होने वाली कहा है: “तपसा निर्जरा च।” (तत्त्वार्थसूत्र, ६/३) इस प्रकार प्रत्येक कारण अन्य कारणों से मिलकर नहीं, अपितु उनके बिना. ही अपना कार्य करता है। कोई भी कारण दूसरे कारण के कार्य को उत्पन्न नहीं कर सकता। निमित्त और उपादान भी अपने-अपने ही कार्य को करते हैं। निमित्त का कार्य उपादान नहीं कर सकता, उपादान का कार्य निमित्त से उत्पन्न होना असंभव है। कुम्भकाररूप निमित्त अपने योगोपयोग का ही कर्ता होता है और मिट्टीरूप उपादान अपने घटपरिणाम का जैसा कि आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है: जीवो ण करेदि घडं णेव पडं णेव सेसगे दव्वे। जोगुवओगा उप्पादगा य तेसिं हवदि कत्ता।। समयसार १०० पृथक्-पृथक् कार्य के उत्पादक सिद्ध होने पर ही कालादि पाँच कारणों का स्वतन्त्र कारणत्व घटित हो सकता है। जैसे एक ही पुत्र की अपेक्षा संसार के सभी पुरुषों का पितृत्व घटित नहीं होता अथवा केवल द्रव्य या केवल पर्याय की अपेक्षा नित्यत्व और अनित्यत्व दोनों धर्म घटित नहीं होते, वैसे ही एक ही कार्य की अपेक्षा कालादि सभी कारणों का कारणत्व घटित नहीं हो सकता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525032
Book TitleSramana 1997 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1997
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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