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76 : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१६६७
स्वभाव के समान आत्मा का चैतन्यस्वभाव स्वाभाविक है। अस्वभावनय से लुहार के द्वारा बाण में उत्पन्न की गई तीक्ष्णता के समान आत्मा के क्षायोपशमिकादि भाव अस्वाभाविक हैं। कालनय से जैसे वृक्ष पर लगे आम्रफल का पकना समय के अधीन है वैसे ही आत्म सम्बद्ध कर्मों की निर्जरा समयाधीन है। अकालनय से जैसे आम का फल भूसे में रख देने से समय के पूर्व भी पक जाता है, वैसे ही आत्मा अपने कर्मों की निर्जरा तप के द्वारा निर्धारित समय के पूर्व भी कर लेती है। पुरुषकारनय से जैसे पुरुषकारवादी को मधुमक्खियों का छत्ता प्रयत्न से प्राप्त हुआ, वैसे ही आत्मद्रव्य के साध्य की सिद्धि प्रयत्न से होती है। किन्तु, दैवनय से जैसे पुरुषकारवादी ने मधुमक्खियों का छत्ता दैववादी को दिया और उसके भीतर उसे माणिक्य की प्राप्ति हो गयी। वैसे ही आत्मा के कार्यविशेष की सिद्धि अयत्नपूर्वक भी हो जाती है।
इन आर्षवचनों से सिद्ध है कि काल, स्वभाव, नियति आदि कारणों से भिन्न-भिन्न कार्यों की उत्पत्ति होती है और अमुक कारण से अमुक कार्य की उत्पत्ति हुई है, इसका निश्चय तभी होता है जब अन्य कारणों के बिना उस कार्य की उत्पत्ति देखी जाय। आचार्य कुन्दकुन्द ने अरहन्तों के स्थान, आसन, गमन तथा धर्मोपदेश आदि क्रियाओं को इस आधार पर नियतिजन्य कहा है कि वे प्रयत्न के बिना उत्पन्न होती,
ठाणणिसेज्जविहारा धम्मुवदेसो य णियदयो तेसिं।
अरहंताणं काले मायाचारो व्व इत्थीणं ।। प्रवचनसार, १/४४ इसे आचार्य अमृतचन्द्र जी ने निम्नलिखित शब्दों में स्पष्ट किया है:
“यथा हि महिलानां प्रयत्नमन्तरेणापि तथाविध योग्यतासद्भवात् स्वभावभूत एव मायोपगुण्ठनागुण्ठितो व्यवहारः प्रवर्तते, तथा हि केवलिनां प्रयत्नमन्तरेणापि तथाविधयोग्यतासद्भावात् स्थानमासनं विहरणं धर्मदेशना च स्वभावभूता एव प्रवर्तन्ते।" (प्रवचनसार/तत्त्वदीपिका १/४४)
___अर्थात् जैसे महिलाओं से प्रयत्न के बिना भी उस प्रकार की योग्यता होने के कारण स्वभावगत मायाचार प्रवृत्त होता है, वैसे ही केवलियों से प्रयत्न के बिना ही उस प्रकार की योग्यता के सद्भाव से स्थान, आसन, विहार और धर्मोपदेश की क्रियाएं स्वभाव से ही प्रवृत्त होती हैं। (यहाँ आचार्य अमृतचन्द्र जी ने कुन्दकुन्दप्रयुक्त 'नियति' शब्द के . लिए 'स्वभाव' शब्द का प्रयोग किया है।)
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