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________________ पंचकारणसमवाय और अनेकान्त : 75 का तथा शीत, उष्ण, वर्षा, आदि ऋतुओं तथा वनस्पति, पुष्प, फल आदि की उचित समय पर उत्पत्ति का कारण है। स्वभाव जीव और अजीव के भव्यत्व, अभव्यत्व, मूर्तत्व, अमूर्तत्व आदि स्वरूप का तथा धर्म, अधर्म, आकाश और काल की गति, स्थिति, अवगाह, परत्वापरत्व आदि के कार्यत्व की निष्पत्ति का कारण है। नियति पदाथों के अपने-अपने स्वरूप में नियत रहने का कारण है। पूर्वकृत कर्म शुभाशुभ भावों एवं इष्टानिष्ट फलों का कारण है तथा पुरुषकार पौरुष द्वारा साध्य कार्यों का कारण है। इस प्रकार क्रियावादी कालादि सभी तत्त्वों को कारणरूप से स्वीकार करता है तथा आत्मा, पुण्य-पाप, परलोक आदि के अस्तित्व को मानता है, इसलिए उसे सम्यग्दृष्टि समझना चाहिए। इस विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि ये पाँचों तत्त्व भिन्न-भिन्न कार्यों के कारण हैं, प्रत्येक कार्य के नहीं और सन्मतिसूत्र की उपर्युक्त गाथा में कालादि पाँचों को इन भिन्न-भिन्न कार्यों की अपेक्षा कारणरूप में स्वीकार करने वाले को सम्यग्दृष्टि कहा गया है, इनमें से किसी एक या कुछ को कारणरूप में स्वीकार कर, अन्य के कारणत्व का निषेध करनेवाला मिथ्यादृष्टि घोषित किया गया है। यहाँ प्रत्येक की कारणरूप में स्वीकृति मात्र अपेक्षित है, प्रत्येक को समस्त कार्यों का कारण स्वीकार करना नहीं। आचार्य अमृतचन्द्र ने भी नियति-अनियति, काल-अकाल, स्वभाव- अस्वभाव, दैव-पुरुषकार आदि परस्परविरुद्ध कारणों से परस्परविरुद्ध कार्यों की उत्पत्ति बतलाई है: “नियतिनयेन नियमितौष्ण्यबहिवन्नियत स्वभावमासि। अनियतिनयेन नियत्यनियमितौष्ण्यपानीयवदनियतस्वभावमासि। स्वभावनयेनानिशित तीक्ष्णकण्टकवत् संस्कारनर्थक्यकारि । अस्वभावनयेनायस्कार निशिततीक्ष्ण विशिखवत् संस्कारसार्थक्यकारि। कालनयेन निदाघदिवसानुसारिपच्चमान- सहकारफलवत् समयायत्तसिद्धिः। अकालनयेन कृत्रिमोष्मपाच्यमान- सहकारफलवत् समयानायत्तसिद्धिः । पुरुषकारनयेन पुरुषकारोपलब्धमधुकुक्कुटीकपुरुषकारवादिवद् यत्नसाध्यसिद्धिः। दैवनयेन पुरुषकारवादिदत्तमधुकुक्कुटीगर्भलब्धमाणिक्यदैववादिवदयत्नसाध्यसिद्धिः।” (प्रवचनसार- तत्त्वदीपिका टीका, ३/७५) __ अर्थात् नियतिनय से अग्नि के उष्णत्व स्वभाव के समान आत्मद्रव्य का चैतन्यस्वभाव नियत है। अनियतिनय से पानी के औपाधिक उष्णस्वभाव के समान आत्मद्रव्य का कर्मोपधिजन्य मोहरागादिस्वभाव अनियत है। स्वभावनय से काँटे के तीक्ष्ण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525032
Book TitleSramana 1997 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1997
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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