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________________ 74 : श्रमण /अक्टूबर-दिसम्बर /१६६७ अर्थात् सुखदुःखादि सब नियतिकृत हैं ऐसा कहने वाले बुद्धिहीन हैं, क्योंकि सुखदुःखादि नियतिकृत भी हैं और अनियतिकृत भी। इसे स्पष्ट करते हुए टीकाकार कहते हैं : “आर्हतानां किञ्चित् सुखदुःखादि नियतित एव भवति तत्कारणस्य कर्मणः कस्मिंश्चिद- वसरे ऽवश्यम्भाव्युदयसभावान्नियतिकृतमित्युच्यते तथा किञ्चिदनियतिकृतं च पुरुषकारकालेश्वरस्वभावकादिकृतम्।" । भाव यह है कि जैनों के मतानुसार कुछ सुखदुःखादि कार्य नियति से ही होते हैं, क्योंकि उनके कारणभूत कर्म का किसी काल में उदय अवश्यम्भावी होने से वे नियतिकृत कहलाते हैं तथा कुछ अनियति से अर्थात् पौरुष, काल, ईश्वर, स्वभाव, कर्म आदि से होते हैं। यहाँ "कुछ कार्य नियति से होते हैं, कुछ कार्य अनियति से' इन शब्दों से स्पष्ट है कि प्रत्येक कार्य नियति और अनियति दोनों से अर्थात् नियति, स्वभाव, काल पूर्वकृत कर्म और पौरुष इन पाँचों के समवाय से नहीं होता। कौन से कार्य किस कारण से उत्पन्न होते हैं, इसका स्पष्टीकरण सूत्रकृतांग के टीकाकार ने निम्नलिखित शब्दों में किया है: “अस्ति कालः कारणत्वेनाशेषस्य जगतः प्रभववृद्धिस्थितिविनाशेषु साध्येषु तथा शीतोष्णवर्षवनस्पतिपुष्फलादिषु चेति तथा चोक्तम्-‘कालः पचति भूतानीत्यादि ।' तथास्ति स्वभावोऽपि कारणत्वेनाशेषस्य जगतः, स्वो भावो स्वभाव इति कृत्वा, तेन हि जीवाजीवभव्यत्वाभव्यत्वमूर्तत्वामूर्तत्वानां स्वस्वरूपानुविधानात् तथा धर्माधर्माकाशकालादीनां च गतिस्थित्यवगाह- परत्वापरत्वादिस्वरूपापादनादिति। तथा चोक्तम्-कः कण्टकानामित्यादि ।' तथा नियतिरपि कारणत्वेनाश्रीयते, तथा तथा पदार्थानां नियतेरेव नियतत्वात् । तथा पुराकृतं, तच्च शुभाशुभमिष्टानिष्टफलं कारणम्। तथा पुरुषकारोऽपि कारणं, यस्मान्न पुरुषकारमन्तरेण किञ्चित् सिध्यति । तथा चोक्तम्-"न दैवमिति सञ्चिन्त्य त्यजेदुद्यममात्मनः । अनुद्यमेन कस्तैलं तिलेभ्यः प्राप्तुमर्हति।.........तदेवं सर्वानपि कालादीन् कारणत्वेनाभ्युपगच्छन् तथात्मपुण्यपाप परलोकादिकं चेच्छन् क्रियावादी सम्यग्दृष्टित्वेनाभ्युपगन्तव्यः।" (सूत्रकृतांग/ समवसरणाध्ययन/गाथा १२१ की शीलाङ्क टीका) अर्थ इस प्रकार है: काल सम्पूर्ण जगत् की उत्पत्ति, वृद्धि, स्थिति, और विनाश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525032
Book TitleSramana 1997 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1997
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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