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श्रमण
पंचकारणसमवाय और अनेकान्त
सन्मतिसूत्र में निम्नलिखित गाथा कही गई है : कालो सहाव णियई पुव्वकयं पुरिस कारणेगंता । मिच्छत्तं ते चेव (व) उ समासओ होंति सम्मत्तं । । ५३ ।।
- डॉ० रतनचन्द्र जैन*
अर्थात् काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत कर्म तथा पौरुष, इनमें से किसी एक को समस्त कार्यों का कारण मानना एकान्तवाद है जो मिथ्यात्व है किन्तु भिन्न-भिन्न कार्यों की अपेक्षा इन सबको कारण स्वीकार करना अनेकान्तवाद है, अतएव सम्यक्त्व
है ।
इस गाथा की कुछ आधुनिक जैन विद्वान् यह व्याख्या करते हैं कि इनमें से किसी एक के द्वारा प्रत्येक कार्य की उत्पत्ति मानना मिथ्यात्व है और पाँचों के समूह से प्रत्येक कार्य की उत्पत्ति मानना सम्यक्त्व है ।
मैं इस व्याख्या से असहमत हूँ। मेरी दृष्टि से इस गाथा का यह अर्थ नहीं है कि पाँचों के समवाय से प्रत्येक कार्य की उत्पत्ति मानना सम्यक्त्व है, अपितु यह अर्थ है कि पाँचों को जगत् के भिन्न-भिन्न कार्यों का कारण मानना सम्यक्त्व है, यह व्याख्या इसलिए समीचीन है कि जगत् के कार्यों में वैविध्य है इसलिए उनकी उत्पत्ति विविध कारणों से ही हो सकती है। इसके समर्थन में निम्नलिखित आर्षवचन प्रस्तुत कर रहा हूँ । सूत्रकृतांग में कहा गया है:
एवमेयाणि जंपता बाला पंडियमाणिणो । निययानिययं संतं अयाणंता अबुद्धिया ।। ( १ / २ / ४ )
१३७ आराधनानगर कोटरा सुल्तानाबाद, भोपाल - ४६२००३.
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