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जैन आगमों में धर्म-अधर्म : 67
जैन दर्शन में धर्म-अधर्म का प्रयोग एक नवीन अर्थ में किया गया है। साथ ही यह भी सत्य है कि धर्म-अधर्म शब्द का प्रयोग जिस व्यापक अर्थों में होता है वह वस्तुतः वैदिक दर्शन की देन है क्योंकि जैन धर्म दर्शन के विकासकाल में धर्म-अधर्म ने इतना व्यापक रूप धारण कर लिया था कि इन शब्दों से जैन दर्शन अपने को वंचित नहीं रख सका और उसे गति तथा स्थिति के कारण रूप में स्वीकार कर लिया। इस संबंध में डॉ० सुरेन्द्र दास नाथ गुप्त का कहना है कि जैन दार्शनिकों ने इन दो द्रव्यों को संभवतः इसलिए आवश्यक माना हो कि उनकी विचारधारा में जीव अथवा परमाणु (पुद्गल) की आन्तरिक प्रवृत्ति के बाह्य प्रकटन के लिए कोई बाड्य निमित्त होना चाहिए जिसके बिना उसकी परिणति बाहय गति के रूप में होनी असंभव है। इस प्रकार यह चिन्तन किया गया होगा कि गति की परिणति या निष्पत्ति के लिए किसी बाहय तत्त्व की सहायता अपेक्षित होनी चाहिए जिसके अभाव में मुक्त आत्मा की गति भी असंभव हो जाती है।६२ संदर्भ1. The conception of Dharma and Adharma in Jainism is abso
lutely different from what they mean in other systems of Indian Philosophy-S.N. Dasgupta,. A History of Indian Philosophy,
Cambridge University Press, London 1932, P. 197 २. डॉ० लूडो रोचेर, जैन दर्शन में धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय-उद्धृत आचार्य श्री तुलसी
अभिनन्दन ग्रंथ, आचार्य श्री तुलसी धवल समारोह समिति, दिल्ली पृ० १४८ ३. मुनिश्री नगराजजी, जैन दर्शन और आधुनिक विज्ञान, आत्माराम एण्ड सन्स,
काश्मीरी गेट, दिल्ली १६५६, पृ० १३४ 4. Thus it is proved that science and Jain Physics agree absolutely
so for as they call Dharm (ether) non-material, non-atomic, non-discrete, continuous, co-extensive with space, indivisible and as a necessary medium for motion and one which does not
itself move.) उद्धृत वहीं पृ०-१४१. ५. समियाए धम्मे आरिएहिं पवेइए- आचारांगसूत्र, संपा०- मधुकर मुनि, जिनागम
ग्रंथमाला, ग्रंथांक-१, आगम प्रकाशन समिति ब्यावर १६८०, १/५/३/१५७. ६. एस धम्मे सुद्धे णित्तिए सासए समेच्च लोयं खेतण्णहिं पवेदिते। वही-१/४/५/१३२. '७. जहा से दीवे असंदीणे एवं से धम्मे आरियपदेसिए । ते अणवकंखमाणा अणतिवातेमाणा
दइता मेधाविणो पंडितो। वही-१/६/३/१८६
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