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66 : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९६७
के काल तक पंचास्तिकायों ने तत्त्व विचारणा में स्थान नहीं पाया था। इस सन्दर्भ में आचार्य महाप्रज्ञजी का कथन है-'नव तत्त्व से पूर्व लोक और अलोक का उल्लेख प्राप्त होता है तथा नवतत्त्व की व्यवस्था में मोक्ष तत्त्व का समावेश है। इन दोनों आधारों पर इस निष्कर्ष पर पहुँचना कठिन नहीं है कि नव तत्त्व की व्यवस्था पंचास्तिकाय की अवधारणा के साथ जुड़ी हुई है। षड्द्रव्य पंचास्तिकाय का विकसित रूप है। पंचास्तिकाय में काल सम्मिलित नहीं है, क्योंकि वह अस्तिकाय नहीं है। वह एक द्रव्य है, इसलिए षड्द्रव्य में परिगणित है। यह बहुत संभव है कि जैन दर्शन में द्रव्य के अर्थ में अस्तिकाय का प्रयोग प्राचीन है और द्रव्य का प्रयोग उसके बाद का है, इसलिए पंचास्तिकाय का सिद्धान्त लोक-अलोक, जीव-अजीव और मोक्ष के सिद्धान्त के साथ ही स्थापित हुआ था। प्रो० सागरमल जैन उपर्युक्त वर्णित तथ्यों से कुछ भिन्न विचार रखते हैं। उनका मानना है कि प्रारम्भ में जैन दर्शन में अस्तिकाय की ही अवधारणा थी। अपने इतिहास की दृष्टि से यह अवधारणा पार्श्वयुगीन थी। 'इसिभासियाई' के पार्श्व नामक इकतीसवें अध्याय में पार्श्व के जगत् सम्बन्धी दृष्टिकोण का प्रस्तुतीकरण करते हुए विश्व के मूल घटकों के रूप में पंचास्तिकायों का उल्लेख हुआ है। भगवतीसूत्र में महावीर ने पार्श्व की इसी अवधारणा का पोषण करते हुए यह माना था कि लोक पंचास्तिकाय रूप है।६० यदि अस्तिकाय की अवधारणा पार्श्वयुगीन माना जाता है तो जिज्ञासा होती है कि आचारांग
और सत्रकतांग में अस्तिकायों का स्पष्ट उल्लेख क्यों नहीं हो पाया? समाधान स्वरूप यह कहा जा सकता है कि आगमों की रचना महावीर के गणधरों एवं स्थविरों द्वारा एक योजनाबद्ध रूप में की गयी है। अतः दर्शन के आधारभूत तत्त्वों का विवेचन पूर्व
और पर में होना स्वाभाविक है, जैसे-व्याख्याप्रज्ञप्ति में प्रज्ञापना का उद्धरण देते हुए यह कहना कि आगे का वर्णन प्रज्ञापना के अनुसार समझना चाहिए।
जीवाजीवाभिगमसूत्र में यह कहना कि प्रज्ञापना के अनुसार जानना चाहिए, इस बात की पुष्टि करता है। जैसा कि आचार्य महाप्रज्ञ ने लिखा है- “आचारांग और सूत्रकृतांग में दर्शन के आधारभूत तत्त्वों की खोज एक सुसंगत उपक्रम नहीं है। महावीर ने किसी आगम की रचना नहीं की। उन्होंने जो कहा उसको आधार मानकर गणधरों
और स्थविरों ने आगमों की रचना की। आचारांग आदि अंगसूत्रों की रचना एक योजनाबद्ध ढंग से की गई थी। समवायांग और नंदी में उपलब्ध द्वादशांगी के विवरण से इस तथ्य की पुष्टि होती है।
जहाँ तक धर्म-अधर्म शब्द के प्रयोग का प्रश्न है तो इतना तो सत्य है कि
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