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________________ जैन आगमों में धर्म-अधर्म : 65 • बताते हुए कहा गया है कि धर्म गति है। लेकिन यहाँ धर्म द्रव्य रूप है यह स्पष्ट नहीं होता है। ___आगमों में वर्णित धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय का विवेचन देखने के पश्चात् प्रथम प्रश्न जिसकी चर्चा लेख के प्रारम्भ में की गयी है उठता है कि धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय का वर्णन सर्वप्रथम कब और किस आगम में आया है? प्राप्त तथ्यों के आधार पर हम कह सकते हैं कि धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय का स्पष्ट उल्लेख स्थानांगसूत्र में प्राप्त होता है। इसका अभिप्राय यह नहीं है कि आचारांग और सूत्रकृतांग में धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय की चर्चा नहीं हुई है। प्रत्यक्ष नहीं तो परोक्ष रूप में चर्चा हुई है। इस सन्दर्भ में हम कुछ जैन विद्वानों के मंतव्यों को उपस्थित करना चाहेंगे। पंडित दलसुखभाई मालवणिया (जिनके विचारों का उल्लेख हम पूर्व में कर चुके हैं, का स्पष्ट मानना है कि सूत्रकृतांग के काल तक पंचास्तिकायों और षद्रव्यों ने तत्त्वविचारणा में स्थान नहीं पाया था। अतः एक ओर मालवणिया जी का यह कहना कि आचारांग में लोक-अलोक का विभाजन है और दूसरी ओर यह कहना कि सूत्रकृतांग के काल तक पंचास्तिकाय और षड्द्रव्यों ने तत्त्वविचारणा में स्थान नहीं पाया है विद्वद्जनों के लिए हैं। क्योंकि यदि हम मानते हैं कि आचारांग में लोक-अलोक का विभाजन है तो फिर यह नहीं कहा जा सकता कि सूत्रकृतांग के काल तक पंचास्तिकायों ने तत्त्व विचारणा में स्थान नहीं पाया है। प्रश्न होता है कि आचारांग में यदि लोक-अलोक की चर्चा हुई है तो उसके विभाजन का आधार क्या है? इतना तो स्पष्ट है कि आधार रूप में पंचास्तिकाय को माना जा सकता है। व्याख्याप्रज्ञप्ति में भी स्पष्ट कहा गया है कि पंचास्तिकाय लोक है। यह सत्य है कि आचारांग में द्रव्य-सम्बन्धी चर्चा के लिए कोई स्वतंत्र अध्ययन नहीं है किन्तु इसका यह अभिप्राय नहीं है कि आचारांग में वर्णित लोक-अलोक के विभाजन का आधार पंचास्तिकाय नहीं कोई और तत्त्व है। सूत्रकृतांग में जो सत्रह प्रतिपक्षी युगलों का वर्णन आया है उसमें पहले लोक-अलोक की प्ररूपणा हुई है उसके बाद फिर जीव-अजीव का वर्णन आया है। साथ ही उसमें धर्म-अथर्म का भी वर्णन है जो द्रव्यात्मक धर्म-अधर्म की ओर संकेत करता है। यदि क्योंकि धर्म-अधर्म का भाव वहाँ पुण्य-पाप से होता तो पुण्य-पाप को पुनः अलग से वर्णित करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। साथ ही मालवणिया जी इन्हीं सत्रह प्रतिपक्षी युगलों को सात तत्त्व एवं नव तत्त्व का आधार मानते हैं, अतः यह नहीं कहा जा सकता कि सूत्रकृतांग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525032
Book TitleSramana 1997 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1997
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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