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________________ 64 : श्रमण / अक्टूबर-दिसम्बर / १६६७ तंदुलवैचारिक प्रकीर्णकों में धर्म-अधर्म का द्रव्य रूप में कहीं स्पष्ट उल्लेख प्राप्त नहीं होता 1 तंदुलवैचारिक के अन्तर्गत 'धर्म' की विवेचना हुई है किन्तु प्राप्त उद्धरणों से ज्ञात होता है कि यहाँ 'धर्म' का प्रयोग मानव जीवन में सम्यक्त्व और मोक्ष रूपी कमल को प्राप्त करने के सन्दर्भ में हुआ है । गाथा १७१ से १७४ में वर्णित धर्म - प्रभाव के अन्तर्गत कहा गया है कि 'धर्म रक्षक है, धर्म शरण है, धर्म गति है और धर्म ही आधार है । धर्म प्रीतिकर, कीर्तिकर, दीप्तिकर यशकर, रतिकर, अभयकर, निवृत्तिकर और मोक्ष प्राप्ति में मदद करने वाला है । देवेन्द्र और चक्रवर्तियों के पद भी धर्म के कारण ही प्राप्त होते हैं और उसी से मुक्ति की प्राप्ति भी होती है। उपलब्ध तथ्यों से यह स्पष्ट होता है कि आचारांगसूत्र और सूत्रकृतांगसूत्र में धर्म-अधर्म आदि पंचास्तिकाय का जो स्वरूप लोक - अलोक के रूप में अस्पष्ट दृष्टिगोचर होता है वह स्थानांगसूत्र के द्वितीय स्थान के प्रथम उद्देशक में द्रव्य के प्रकार- गति समापन्नक और अगतिसमापन्नक के रूप में स्पष्ट हो जाता है । स्थानांग में स्पष्ट उल्लेख आया है कि चार कारणों से जीव और पुद्गल लोक से बाहर नहीं जा सकते। उनमें पहला कारण है-धर्मास्तिकाय का अभाव । धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय अस्तिकाय के प्रकार हैं- जो स्थानांग, समवायांग और व्याख्याप्रज्ञप्ति में समान रूप से मिलते हैं । किन्तु पंचास्तिकायों की विस्तृत चर्चा व्याख्याप्रज्ञप्ति में दृष्टिगोचर होती है । द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और गुण की अपेक्षा से धर्मास्तिकाय के जिन पाँच प्रकारों का उल्लेख मिलता है उनका निर्धारण स्थानांगसूत्र में ही हो गया है और उसी की पुनरावृत्ति व्याख्याप्रज्ञप्ति में मिलती है 1 उपांगों में जीवाजीवाभिगम एवं प्रज्ञापना के अन्तर्गत एक नया तथ्य देखने को मिलता है जिसकी चर्चा पूर्व के आगमों में नहीं हुई। जीवाजीवाभिगम में द्रव्य को जीव-अजीव के रूप में विभाजित करते हुए अजीव के दस प्रकार बताये गये हैं- धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय केदेश, धर्मास्तिकाय के देश, धर्मास्तिकाय के प्रदेश, अधर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय के प्रदेश, आकाशास्तिकाय, आकाशास्तिकाय के देश, आकाशास्तिकाय के प्रदेश तथा अद्धासमय । उत्तराध्ययनसूत्र और अनुयोगद्वारसूत्र में भी अजीव के उपर्युक्त दस प्रकारों का उल्लेख है । जहाँ तक प्रकीर्णकों का प्रश्न है तो तंदुलवैचारिक में धर्म की विशेषता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525032
Book TitleSramana 1997 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1997
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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