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जैन आगमों में धर्म-अधर्म : 63
• पुद्गलास्तिकाय से अद्धासमय उत्तरोत्तर अनन्तगुण हैं। इसी प्रकार प्रदेशार्थ रूप से धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय असंख्यात् हैं-परस्पर तुल्य हैं और दूसरे प्रदेशों की अपेक्षा अल्प हैं। उनसे जीवास्तिकाय, जीवास्तिकाय से पुद्गलास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय से अद्धा समय और अद्धासमय से आकाशास्तिकाय उत्तरोत्तर अनन्तगुण हैं।८ उत्तराध्ययनसूत्र
मूल सूत्रों में एकमात्र प्रथम मूलसूत्र उत्तराध्ययन में ही द्रव्य के रूप में धर्म-अधर्म लोक को परिभाषित करते हुए कहा गया है-लोक जीव-अजीवमय है। अजीव दो प्रकार के हैं-रूपी और अरूपी।५० पुनः रूपी के चार तथा अरूपी के दस प्रकार बताये गये हैं।५१ अरूपी अजीव द्रव्यों के प्रमाण प्ररूपण में कहा गया है-धर्म-अधर्म लोक प्रमाण है। आकाश लोक और अलोक दोनों में व्याप्त है। काल मनुष्य क्षेत्रान्तर्गत है। धर्म-अधर्म
और आकाश ये तीनों द्रव्य अनादि-अनन्त और सर्वकालिक हैं। प्रवाह की अपेक्षा से काल भी अनादि-अनन्त है तथा आदेश अर्थात एक-एक समय की अपेक्षा से सादि
और सान्त है।५२ अट्ठाइसवें अध्ययन में गति और अगति (स्थिति) को धर्म-अधर्म के लक्षण बताये गये हैं।५३ अनुयोगद्वारसूत्र
प्रस्तुत ग्रंथ में षद्रव्यों की चर्चा हुई है।५४ जीव-अजीव के रूप में द्रव्य के दो प्रकारों का विवेचन करते हुए अजीव द्रव्य के दस प्रकारों५५ पर प्रकाश डाला गया है। साथ द्रव्यानुपूर्वी के अन्तर्गत पूर्वानुपूर्वी तथा पश्चानुपूर्वी के आधार पर द्रव्यों का क्रम स्थापित किया गया है। द्रव्य विशेष के समुदाय में जो पूर्व (प्रथम) द्रव्य है, उससे प्रारंभ कर अनुक्रम से आगे-आगे के द्रव्यों की स्थापना अथवा गणना की जाती है उसे पूर्वानुपूर्वी कहते हैं। इसी प्रकार द्रव्य विशेष के समुदाय में से जो अंतिम द्रव्य हो उसे लेकर विलोम क्रम से प्रथम द्रव्य तक गणना करने को पश्चानुपूर्वी कहते हैं। पूर्वानुपूर्वी से द्रव्यों के कम इस प्रकार है- धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और अद्धासमय।१६ पश्चानुपूर्वी ठीक पूर्वानुपूर्वी के विपरीत होता है।५७ यदि १ से ६ तक की संख्या को पश्चानुपूर्वी के आधार पर बैठाना चाहें तो ६,५,४,३,२ और १ कहेंगे। इसी प्रकार द्रव्यों को भी पश्चानुपूर्वी के अन्तर्गत निर्धारित किया गया है।
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