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62 : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९६७
उनका यह कथन सत्य प्रतीत होता है क्योंकि व्याख्याप्रज्ञप्ति में धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय के पर्यायार्थक अभिवचन धर्म-अधर्म को द्रव्य रूप में अभिहित करने की अपेक्षा उसके पारम्परिक अर्थ को ज्यादा दर्शाते हैं और यदि उनका कथन धर्म-अधर्म के पर्यायवाची शब्दों से द्रव्यार्थ को दर्शाना है तो उचित नहीं जान पड़ता। दूसरे प्रश्न के सन्दर्भ में ऐसा का जा सकता है कि व्याख्याप्रज्ञप्ति में उद्धृत प्रज्ञापना के सन्दर्भ से यह स्पष्ट होता है कि धर्म-अधर्म के अल्पत्व- बहुत्व की चर्चा प्रज्ञापना में विशेष रूप से हुई है। जीवाजीवाभिगमसूत्र
जीवाभिगम और अजीवाभिगम को मिलाकर जीवाजीवाभिगम नाम बनता है। प्रस्तुत ग्रंथ में भगवान् महावीर और गणधर गौतम के प्रश्नोत्तर के रूप में जीव-अजीव के भेद-प्रभेदों की चर्चा की गयी है। इसमें जीव और अजीव की चर्चा समान रूप से न करके अजीव का संक्षेप दृष्टि से तथा जीव का विस्तृत रूप से प्रतिपादन किया गया है। अजीव को रूपी-अरूपी४४ इन दो रूपों में विभाजित करते हुए अरूपी अजीव के दस प्रकार बताये गये हैं। साथ ही यह भी निर्देश किया गया है कि जैसा प्रज्ञापनासूत्र में कहा गया है वैसा ही समझना चाहिए।५५
प्रज्ञापनासूत्र
इसके प्रथम प्रज्ञापना पद में जीव और अजीव के भेद-प्रभेद को बताते हुए अजीव के सम्बन्ध में विस्तार से निरूपण हुआ है। आगे अजीव को रूपी-अरूपी'६ इन दो भेदों में विभक्त करते हुए रूपी के अन्तर्गत पुद्गल द्रव्य तथा अरूपी के अन्तर्गत धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि का निरूपण है। अरूपी अजीव दस प्रकार के बताये गये हैं-(१) धर्मास्तिकाय (२)धर्मास्तिकाय का देश (३) धर्मास्तिकाय के प्रदेश (४) अधर्मास्तिकाय (५) अधर्मास्तिकाय का देश (६) अधर्मास्तिकाय का प्रदेश (७) आकाशास्तिकाय (८) आकाशास्तिकाय का देश (E) आकाशास्तिकाय के प्रदेश तथा (१०) अद्धासमय।
इनके अतिरिक्त तृतीय प्रज्ञापना के बहुवक्तव्यतावाद में द्रव्य और प्रदेश की अपेक्षा से अल्पत्व-बहुत्व का निरूपण है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय एक-एक द्रव्य होने से द्रव्यार्थ रूप से तुल्य हैं और दूसरे द्रव्यों की अपेक्षा अल्प हैं। उनसे जीवास्तिकाय, जीवास्तिकाय से पुद्गलास्तिकाय और
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