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जैन आगमों में धर्म-अधर्म : 61
व्याख्याप्रज्ञप्ति में इस संबंध में भी चर्चा मिलती है कि धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय यदि द्रव्य हैं तो क्या कोई व्यक्ति उस पर बैठने, सोने, खड़ा होने, लेटने आदि में समर्थ हो सकता है? उत्तर होगा-नहीं? क्योंकि धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय दोनों ही अमूर्त द्रव्य हैं। अतः जो अमूर्त द्रव्य हैं जिसे हम देख नहीं सकते, स्पर्श नहीं कर सकते उस पर बैठ कैसे सकते हैं? व्याख्याप्रज्ञप्ति के अनुसार कोई कूटगारशाला हो, जो बाहर और भीतर दोनों से लीपी हुई हो, चारो ओर से ढकी हुई हो उसके बाद भी गुप्त हो और उस कूटगारशाला के द्वार के कपाटों को बंद करके ठीक मध्य भाग में कम से कम एक, दो या तीन और उत्कृष्ट अधिक से अधिक १००० (एक हजार) दीपक जला दें तो हे गौतम उन दीपकों की प्रभाएँ परस्पर एक-दूसरे से सम्बद्ध होकर एक-दूसरे की प्रभा (किरण) को छूकर अर्थात् परस्पर एक रूप होकर रहती हैं, तो क्या कोई व्यक्ति उन प्रदीप प्रभाओं पर बैठने, सोने यावत् करवट बदलने में समर्थ हो सकता है? नहीं, तो फिर धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय त्रिक में न कोई बैठ सकता है और न सो सकता है, न खड़ा रह सकता और न ही करवट बदल सकता है।
जहाँ तक द्रव्यार्थरूप में धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय के अल्पत्व-बहुत्व का प्रश्न है तो व्याख्याप्रज्ञप्ति में इसे प्रज्ञापना के तृतीय बहुवक्तव्यतावाद के अनुसार इसका उल्लेख समझने का निर्देश दिया गया है।४२
उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर इतना तो स्पष्ट है कि व्याख्याप्रज्ञप्ति में धर्म-अधर्म का द्रव्य रूप में पूर्णतः विकसित रूप प्राप्त होता है। लेकिन यहाँ इसे द्रव्य रूप में न कहकर अस्तिकाय रूप में कहा जाए तो उचित होगा। क्योंकि इसमें धर्म-अधर्म को द्रव्य की अपेक्षा अस्तिकाय रूप में ज्यादा विश्लेषित किया गया है। लेकिन यहाँ दो प्रश्न उपस्थित होते हैं-(१) धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय के जो पर्यायवाची बताये गये हैं वे कहाँ तक तर्कसंगत हैं? (२) द्रव्यार्थ रूप में धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय के अल्पत्व-बहुत्व के सन्दर्भ में यह प्रसंग आना कि प्रज्ञापना के अनुसार समझना चाहिए, का क्या अभिप्राय है? प्रथम प्रश्न के सन्दर्भ में डॉ० धर्मचन्द जैन का कहना है कि "व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र में धर्मास्तिकाय आदि के जो पर्यायार्थक अभिवचन दिए गए हैं, उनसे इन धर्म-अधर्म आदि के अर्थ का व्यापक परिचय मिलता है। धर्मास्तिकाय के अभिवचन में प्राणातिपातविरमण यावत् परिग्रह विरमण, क्रोध-विवेक यावत् मिथ्यादर्शन-शल्य विवेक आदि को भी स्थान दिया गया है। इनके विपरीत अधर्मास्तिकाय के अभिवचन हैं।४३ डॉ० जैन के इस कथन में प्रयुक्त शब्द 'इन' यदि धर्म-अधर्म के पारम्परिक अर्थ को द्योतित करते हैं तब तो
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