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60 : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९६७
और गुण की अपेक्षा से धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय के पाँच-पाँच प्रकार हैं।३६ इसका उल्लेख स्थानांगसूत्र में भी आया है। आकार की दृष्टि से धर्म लोक, लोकमात्र, लोक प्रमाण और लोक स्पृष्ट है।७ अतः उसे एक स्थान से दूसरे स्थान में जाने की कोई आवश्यकता नहीं होती। जितने उसके प्रदेश हैं उतने ही प्रदेशों में वह रहता है। प्रदेशों से अभिप्राय है स्कन्ध का ऐसा सूक्ष्म अंश जिसका पुनः अंश न हो सके। ये प्रदेश संख्या में असंख्यात हैं। अब यहाँ प्रश्न हो सकता है कि धर्मास्तिकाय यदि संख्या में असंख्यात हैं तो क्या उसके एक प्रदेश से चार प्रदेशों को धर्मास्तिकाय कहा जा सकता है? इस संबंध में महावीर और गौतम के बीच हुई वार्ता, व्याख्याप्रज्ञप्ति में बड़े ही सुन्दर ढंग से प्रस्तुत की गयी है- गौतम ने भगवान् से पूछा-भगवन्, क्या धर्मास्तिकाय के एक, दो, तीन, चार आदि प्रदेशों को धर्मास्तिकाय कहा जा सकता है? महावीर ने कहा- गौतम, धर्मास्तिकाय के असंख्येय प्रदेश हैं। वे सब प्रतिपूर्ण निरवशेष और एक शब्द द्वारा गृहीत होते हैं। अतः इनको ही धर्मास्तिकाय कहा जा सकता है। प्रस्तुत मंतव्य निश्चय नय की दृष्टि से स्वीकार किया जा सकता है, व्यवहार नय की दृष्टि से नहीं। क्योंकि निश्चय की दृष्टि से जब तक एक प्रदेश भी कम हो तब तक उसको धर्मास्तिकाय की संज्ञा नहीं दी जा सकती। धर्मास्तिकाय के जब सभी प्रदेश परिपूर्ण हों तभी वे धर्मास्तिकाय हैं। तात्पर्यअधूरी वस्तु, वस्तु नहीं कहला सकती लेकिन व्यवहार नय की दृष्टि से वही वस्तु, वस्तु कहला सकती है। यथा-गधे की पूंछ कट जाने के उपरान्त भी गधा, गधा ही कहलाता है। ठीक इसी प्रकार अधर्म के विषय में भी कहा गया है क्योंकि वह भी असंख्यात प्रदेशवाला तथा धर्म की भाँति सर्वलोकव्यापी है। प्रति प्रश्न के रूप में यहाँ यह शंका हो सकती है कि धर्म-अधर्म दोनों असंख्यात प्रदेशवाले और सर्वव्यापी हैं तो फिर दोनों एक होंगे? यदि एक नहीं हैं तो दोनों आपस में टकराते होंगे? इन प्रश्नों का भगवान् ने कहा है-धर्मास्तिकाय के जघन्यपद में तीन तथा उत्कृष्ट पद में छः प्रदेशों, अधर्मास्तिकाय के जघन्य पद में चार और उत्कृष्ट पद में सात प्रदेशों, आकाशास्तिकाय के सात प्रदेशों, जीवास्तिकाय के अनन्त प्रदेशों, पुद्गल के अनन्त प्रदेशों को स्पृष्ट करता है तथा काल को कथंचित स्पृष्ट करता भी है, कथंचित नहीं भी करता है। यदि स्पृष्ट करता भी है तो नियमतः अनन्त समयों से स्पृष्ट होता है। इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय का एक प्रदेश धर्मास्तिकाय के जघन्यपद में चार और उत्कृष्ट पद में छः प्रदेशों से स्पृष्ट करता है। शेष सभी धर्मास्तिकाय की भाँति ही स्पृष्ट होते हैं।४० इनका यह स्पर्शन ठीक उसी प्रकार होता है जिस प्रकार एक कमरे में रखे गये दो, तीन दीपकों के प्रकाश में स्पर्शन होते हैं।
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