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________________ जैन आगमों में धर्म-अधर्म : 59 दो, चार और दस प्रकार बताये गये हैं- श्रुतधर्म और चारित्रधर्म;२८ शान्ति, मुक्ति (निर्लोभता) आर्जव और मार्दव;२६ ग्रामधर्म, नगरधर्म, राष्ट्रधर्म, पाखण्डधर्म, कुलधर्म, गणधर्म, संघधर्म, श्रुतधर्म, चारित्रधर्म और अस्तिकाय धर्म । यहाँ अस्तिकाय धर्म से तात्पर्य द्रव्यों के स्वभाव से है। समवायांगसूत्र इसके अन्तर्गत धर्म-अधर्म की विवेचना प्रचलित सामान्य अर्थ में तथा द्रव्य, दोनों अर्थों में हुई है। प्रथम स्थानक में संग्रहनय की दृष्टि से लोक-अलोक, धर्म-अधर्म आदि परस्पर प्रतिपक्षी या सापेक्ष पदार्थों की चर्चायें मिलती हैं। इसी प्रकार पाँचवें समवाय में विविध विषय निरूपण के अन्तर्गत भी धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि का उल्लेख मिलता है जो द्रव्य के प्रकारों पर प्रकाश डालता है।३२ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र पाँचवें व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग में धर्म-अधर्म का विवेचन आचार एवं द्रव्य दोनों रूपों में हुआ है। द्रव्य के रूप में धर्म-अधर्म से संबधित लगभग सभी पक्षों पर विचारणा इस ग्रंथ में हुई है। द्वितीय शतक के दसवें उद्देशक में पाँच प्रकार के३३ अस्तिकायों को निरूपित करते हुए उसके लक्षण, स्वरूप और प्रकारों पर प्रकाश डाला गया है। धर्मास्तिकाय की प्रवृति बताते हुए कहा गया है कि जगत् के जितने भी चल-अचल अर्थात् गमनशील और स्थितिशील भाव वाले हैं वे सब धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय के द्वारा प्रवृत होते हैं। जीवों के आगमन, गमन, भाषा, उन्मेष (पलक झपकना), मनोयोग, वचनयोग और काययोग आदि धर्मास्तिकाय से प्रवृत होते हैं। इसी प्रकार जीव के स्थान, निषीदन (बैठना), त्वग्वर्तन (करवट लेना) और मन को एकाग्र करना आदि अधर्मास्तिकाय द्वारा प्रवृत्त होते हैं।३४ लक्षण के पश्चात् धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय के ये पर्यायवाची शब्द बताये गये हैं-धर्म, धर्मास्तिकाय, प्राणातिपातविरमण, मृषावादविरमण यावत् परिग्रहविरमण, क्रोध-विवेक यावत् मिथ्या दर्शन-शल्य-विवेक अथवा ईर्या समिति, भाषा समिति, एषणा समिति अथवा मनोगुप्ति, वचनगुप्ति या कायगुप्ति ये सब तथा इनके समान जितने भी दूसरे इस प्रकार के शब्द हैं वे सब धर्मास्तिकाय के अभिवचन (पर्याय) हैं। इसी प्रकार अधर्म, अधर्मास्तिकाय यावत् उच्चार-प्रसवण- खेल-जल्ल-सिंधाण-परिष्ठापनिका सम्बन्धी असमिति, मन-अगुप्ति, वचन-अगुप्ति और काय-अगुप्ति ये सब तथा इसी प्रकार के अन्य शब्द भी अधर्मास्तिकाय के अभिवचन (पर्याय) हैं।३५ द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525032
Book TitleSramana 1997 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1997
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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