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________________ 58 : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१६६७ स्पष्ट है कि सूत्रकृतांग के काल तक पंचास्तिकाय और षड्द्रव्यों की चर्चा ने तत्त्वविचारणा में स्थान नहीं पाया है।।६ पंडित जी का यह कथन समीक्षणीय है। क्योंकि जीव और पुद्गल दोनों गतिशील हैं। गति और स्थिति दोनों ही क्रियाएँ सहज रूप से जीव और पुद्गल में ही पायी जाती हैं। इनका स्वभाव न केवल गति करना है और न स्थिति करना ही। गति और स्थित का उपादान कारण जीव एवं पुद्गल स्वयं है तथा निमित्तकारण धर्म-अधर्म द्रव्य है। साथ ही सूत्रकृतांग में यदि लोक-अलोक का विभाजन है तो धर्म-अधर्म का द्रव्य रूप में अस्तित्व स्वतः प्रमाणित हो जाता है क्योंकि धर्म-अधर्म द्रव्य के बिना लोक-अलोक की व्यवस्था हो ही नहीं सकती। स्थानांगसूत्र स्थानांगसूत्र में धर्म-अधर्म की विवेचना आचार एवं व्यवहार के साथ-साथ स्पष्टतः द्रव्य रूप में भी हुई है। ग्रंथ के प्रथम स्थान में अस्तित्व-सूत्र की पाँचवी गाथा में लोक, अलोक, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय बन्थ, मोक्ष, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, वेदना और निर्जरा को एक-एक माना गया है जो संग्रहनय की अर्थवत्ता को प्रकट करता है।२० अन्यत्र भी द्रव्य के दो प्रकारों को स्पष्ट करते हुए उसे गतिसमापन्नक और अगतिसमापन्नक ‘बताया गया है जो धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय द्रव्य के प्रत्यक्ष उल्लेख हैं।२१ इसमें श्रुतधर्म, चारित्रधर्म और अस्तिकायधर्म के रूप में धर्म के तीन प्रकार बताये गये हैं।२२ अस्तिकाय रूप में द्रव्य की स्थापना यहाँ स्पष्ट रूप में परिलक्षित होती है। अस्तिकाय धर्म के पाँच प्रकार हैं-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय ।२३ अस्तिकायधर्म के ये पाँचों प्रकार यह प्रमाणित करते हैं कि यह उनके विकास का प्रारम्भिक स्तर है। स्वरूप की दृष्टि से धर्मास्तिकाय अवर्ण, अगन्ध, अरस, अस्पर्श, अरूपी, अजीव, शाश्वत, अवस्थित और लोक का अंशभूत द्रव्य है।२४ द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और गुण की अपेक्षा से धर्मास्तिकाय के पाँच प्रकार निरूपित किय गये हैं।२५ द्रव्य की अपेक्षा से धर्मास्तिकाय एक, क्षेत्र की अपेक्षा से लोक प्रमाण, काल की अपेक्षा से ध्रुव, निश्चित, शाश्वत, अक्षय, नित्य भाव की अपेक्षा से वर्ण, गंध, रस और स्पर्श से रहित तथा गुण की अपेक्षा से गमन गुणवाला अर्थात् जीव और पुद्गल के गमन करने में सहायक है।२६ इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और गुण की अपेक्षा से एक, लोकप्रमाण नित्य, अस्पर्श तथा अवस्थान गुणवाला स्थानांग में धर्म, आचार और व्यवहार की दृष्टि से भी निरूपित है। इसके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525032
Book TitleSramana 1997 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1997
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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