________________
जैन आगमों में धर्म-अधर्म : 57
को अस्तिरूप में फलित करते हुए १७ (सत्रह ) प्रतिपक्षी युगलों के द्वारा प्रस्तुत किया गया है तथा अस्तित्व को स्वीकार करने तथा नास्तित्व को अस्वीकार करने का निर्देश दिया गया है, वे सत्ररह युगल निम्नलिखित हैं " _
१. लोक-अलोक, २. जीव- अजीव, ३. धर्म-अधर्म, ४. बन्धन - मोक्ष, ५. पुण्य-पाप, ६. आस्रव संवर, ७. वेदना - निर्जरा, ८. क्रिया-अक्रिया, ६. क्रोध-मान, १०. माया - लोभ, ११. प्रेम - द्वेष, १२. चतुरंग - संसार, १३. देव-देवी, १४. सिद्धि-असिद्धि, १५. सिद्धिगति-असिद्धिगति, १६. साधु - असाधु, १७. कल्याण- अकल्याण ।
इन उद्धरणों से यह ज्ञात नहीं हो पाता है कि उपर्युक्त सत्ररह युगलों में वर्णित धर्म-अधर्म द्रव्य रूप में आया है या आचार- अनाचार के रूप में। इस सम्बन्ध में कुछ विद्वानों का मानना है कि इन युगलों में वर्णित धर्म-अधर्म का सम्बन्ध चरित्र से है । यह उचित नहीं जान पड़ता है क्योंकि धर्म-अधर्म का विभाजन यदि आचार - अनाचार के रूप में होता तो पुनः पुण्य-पाप के विभाजन की आवश्यकता नहीं पड़ती। अतः यहाँ धर्म-अधर्म का वर्णन आचार - अनाचार के रूप में न होकर द्रव्य रूप में ही हुआ है ऐसा कहा जा सकता है। लेकिन जैन दर्शन के शीर्षस्थ विद्वान् पं० दलसुख भाई मालवणिया का अभिमत इसके विपरीत है। उनके अनुसार- पंचास्तिकाय और षड्द्रव्यों की कल्पना नव तत्त्व या सात तत्त्व के बाद ही हुई है इसका प्रमाण हमें भगवती सूत्र में मिल जाता है । वहाँ प्रश्न किया गया है कि लोकान्त में खड़ा रहकर देव अलोक में अपना हाथ हिला सकता है या नहीं? उत्तर दिया गया है- 'जीवणं आहारोवचिया पोग्गला, वोंदिया पोग्गला कलेवरचिया पोग्गला पोग्गलमेव पप्पजीवाण य अजीवाण य गतिपरियाए आहिज्जइ अलोए णं नेवत्थि जीवा नेवत्थि पोग्गला “ अर्थात् जीवों के अनुगत आहारोपचित पुद्गल शरीरोपचित पुद्गल और कलेकरोपचित पूद्गल होते हैं तथा पुद्गलों के आश्रित ही जीवों और अजीवों की गतिपर्याय कही गयी है । अलोक में न तो जीव हैं और न ही पुद्गल हैं। इसी कारण पूर्वोक्त देव यावत् सिकोड़ने और पसारने में समर्थ नहीं है। अतः स्पष्ट है कि जीव और अजीव की गति का कारण पुद्गल को माना गया है। यदि भगवती के इस स्तर की रचना के समय में धर्मास्तिकाय द्रव्य की कल्पना स्थिर हो गयी होती तो ऐसा उत्तर मिलता नहीं। वे आगे लिखते हैं- सूत्रकृतांग में जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, वेदना, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण, बन्ध और मोक्ष का निर्देश है इसी सूची का संकोच हम सात पदार्थ और नव तत्त्व में देखते हैं। इससे वेदना क्रिया और अधिकरण को निकाल देने से ही ये अंतिम सूचियाँ बनी हैं इसमें संदेह नहीं है ।
1
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org