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________________ 56 : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर /१६६७ सूत्रकृतांगसूत्र यह आचारांग सूत्र से परवर्ती है। यदि इसे 'दर्शन' और 'धर्म' का संगम स्थल कहा जाये तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। दो श्रुतस्कन्धों में विभक्त इस साहित्य के प्रथम श्रुतस्कन्ध में धर्म सम्बन्धी चर्चायें प्राप्त होती हैं, जैसे-मुनिधर्म", श्रमणधर्म', लौकिक धर्म१२, लोकोत्तर थर्म१३ आदि। नवम अध्ययन जो 'धर्म' नाम से संज्ञयित है, की प्रथम गाथा के पूर्वाद्ध में प्रश्न उपस्थित किया गया है कि मतिमानों ने कौन सा व कैसा धर्म बताया है उत्तर स्वरूप कहा गया है- तीर्थंकरों के ऋजु अर्थात् सरल धर्म को सुनो।१४ द्वितीय श्रुतस्कंध के छठे अध्ययन में भी रत्नत्रय रूप धर्म का प्रतिपादन करते हुए कहा गया है कि तत्त्वदर्शी केवली भगवान् की आज्ञा से इस समाधियुक्त धर्म को अंगीकार कर तथा धर्म में सम्यक् प्रकार से सुस्थित होकर तीनों करणों से समस्त मिथ्यादर्शनों से विरक्त हो साधक अपनी और दूसरों की आत्मा का त्राता बनता है। अतः महादुस्तर समुद्र की भाँति संसार- समुद्र को पार करने के लिए आदान (सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र) रूप धर्म का निरूपण एवं ग्रहण करना चाहिए।५।। उपर्युक्त उद्धरणों से इतना स्पष्ट है कि धर्म-अधर्म की चर्चा आचार-अनाचार के परिप्रेक्ष्य में विशेष रूप से हुई है। इसका स्पष्ट उदाहरण हम द्वितीय श्रुतस्कन्ध के द्वितीय अध्ययन की ७१४ वीं गाथा में देख सकते हैं, जहाँ उल्लेख है-जो अनारम्भी होते हैं, अपरिग्रही होते हैं, जो धार्मिक होते हैं, धर्मानुसार प्रवृति करते हैं या धर्म की अनुज्ञा देते हैं, धर्म को ही अपना इष्ट मानते हैं या धर्म प्रधान होते हैं, धर्म की ही चर्चा करते हैं, धर्म को ही देखनेवाले, धर्म में अनुरक्त, धर्मशील तथा धर्माचार परायण होते हैं, यहाँ तक कि वे धर्म से ही अपनी जीविका उपार्जन करते हुए जीवनयापन करते हैं वे धार्मिक पुरुष अनगार अर्थात् गृहत्यागी भाग्यवान् होते हैं।६ मधुकर मुनि ने भी द्वितीय श्रुतस्कन्ध के पाँचवें अध्ययन की गाथा ५६७ की व्याख्या में स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि श्रृत और चारित्र या सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र धर्म कहलाते हैं, ये आत्मा के स्वाभाविक परिणाम, स्वभाव या गुण हैं। ठीक इनके विपरीत मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग- ये भी आत्मा के ही गुण हैं, परिणाम हैं, किन्तु कर्मोपाधिजनित होने से तथा मुक्ति के विरोधी होने से अधर्म कहलाते हैं। ____ अब प्रश्न उठता है कि सूत्रकृतांग में धर्म-अधर्म की द्रव्य के रूप में चर्चा हुई है या नहीं? द्वितीय श्रुतस्कन्ध के पाँचवे अध्ययन में कुछ ऐसे उद्धरण मिलते हैं जो परोक्ष रूप में धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय को प्रकाशित करते हैं। जिन तत्त्वों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525032
Book TitleSramana 1997 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1997
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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