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________________ 54 : श्रमण / अक्टूबर-दिसम्बर / १६६७ नवीन अर्थ में प्रयुक्त किया जो कि अन्य भारतीय दर्शनकारों को ज्ञात नहीं थे । अतः इतना तो स्पष्ट है कि 'गति' और 'स्थिति' के कारणरूप में धर्म-अधर्म को प्रस्तुत कर जैन दर्शन ने विश्व को एक नया सिद्धान्त दिया है 1 विज्ञान की दृष्टि से जैन दर्शन में मान्य धर्मद्रव्य और विज्ञान में मान्य ईथर (Ether) लगभग एक से प्रतीत होते हैं। आइन्स्टीन के अनुसार ईथर अभौतिक (अपारमाणविक), लोकव्याप्त एवं नहीं देखा जा सकने वाला एक अखण्ड द्रव्य है । धर्म द्रव्य और ईथर किस सीमा तक समान हैं इसकी तुलनात्मक विवेचना करते हुए प्रो० जी०आर० जैन लिखते हैं- "यह प्रमाणित हो गया है कि जैन दार्शनिक व आधुनिक वैज्ञानिक यहाँ तक एकमत हैं कि धर्म द्रव्य या ईथर अभौतिक अपारमाणविक, अविभाज्य, अखण्ड, आकाश के समान व्याप्त, अरूप, गति का अनिवार्य माध्यम और अपने आप में स्थिर है । वस्तुतः जिस ज्ञान को विज्ञान के क्षेत्र में १६वीं शताब्दी में खोजने का प्रयास किया गया उसे जैनाचार्यों ने कई शताब्दियों पूर्व ही खोज लिया था । जैन परम्परा में धर्म शब्द मुख्यतः तीन अर्थों में प्रयुक्त है १. स्वभाव अर्थात् गुण के रूप में जब जैन तत्त्वमीमांसा का श्रीगणेश 'अनन्त धर्मात्मकं वस्तु' से होता है । २. ‘नीति’ अर्थात् आचरण के रूप में जब जैन आचारमीमांसा के मूलाधार के रूप में 'अहिंसा परमोधर्मः' कहा जाता है । ३. द्रव्य के अन्तर्गत जब षड्द्रव्यों के रूप में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय आदि की विवेचना होती है 1 प्रस्तुत निबन्ध में 'धर्म-अधर्म' का द्रव्य के रूप में विवेचन करना ही हमारा उद्देश्य है, विशेषतः इस दृष्टिकोण से कि धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय की अवधारणा जैनागमों में कब और किस रूप में आयी ? ऐसा नहीं है कि इससे पूर्व में इस विषय पर कार्य नहीं हुए हैं। कार्य तो हुए किन्तु उनके स्वरूप के सन्दर्भ में हुए हैं। या, अस्तिकायों की विवेचना के साथ धर्म-अधर्म की भी चर्चा विद्वानों ने किया है । ऐतिहासिक विवेचन की दृष्टिसे धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय के सन्दर्भ में कुछ प्रश्न उपस्थित होते हैं, जो इस प्रकार हैं १. धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय का सिद्धान्त आगमों में कब और किस रूप में आया? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525032
Book TitleSramana 1997 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1997
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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