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________________ श्रमण जैनागमों में धर्म-अधर्म (द्रव्य) : एक ऐतिहासिक विवेचन -डॉ० विजय कुमार जैन दर्शन में षट् द्रव्यों की सत्ता स्वीकार की गयी है। धर्म, अधर्म आकाश, जीव, पुद्गल और काल-ये षट् द्रव्य हैं। भेद-प्रभेद की दृष्टि से द्रव्य का प्रथम विभाजन अस्तिकाय और अनस्तिकाय के रूप में है। अस्तिकाय द्रव्य वे हैं जिन्हें शरीर प्राप्त हो और अनस्तिकाय जिन्हें शरीर प्राप्त न हो। धर्म, अधर्म, आकाश, जीव और पुद्गल अस्तिकाय के अन्तर्गत तथा एकमात्र काल अनस्तिकाय के अन्तर्गत आता है। काल को किसी भी प्रकार का शरीर प्राप्त नहीं होता। अस्तिकाय को जीव-अजीव के रूप में में "विभाजित किया जाता है। जीव 'मुक्त' और 'बद्ध' दो होते हैं तो अजीव के अन्तर्गत धर्म, अधर्म, आकाश, और पुद्गल होते हैं। सामान्यतया जिन अर्थों में धर्म-अधर्म शब्द प्रयुक्त किये जाते हैं, जैन दर्शन में प्रयुक्त धर्म-अधर्म का उससे सर्वथा भिन्न अर्थ है। धर्म और अधर्म जैन दर्शन का एक पारिभाषिक शब्द है जो 'गति' और 'स्थिति' का सूचक है। चार्वाक को छोड़कर प्रायः सभी भारतीय दर्शनों और धर्मशास्त्रों में धर्म-अधर्म का प्रयोग नीति-अनीति, पाप-पुण्य, शुभ-अशुभ के रूप में देखा जाता है। गति और स्थिति के कारण रूप धर्म-अधर्म सिद्धान्त को प्रस्तुत कर जैन दर्शन ने एक नवीन मौलिक सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है, जो जैन दर्शन की विशिष्टता का द्योतक है। डॉ० सुरेन्द्रनाथ दासगुप्त के शब्दों में-जैन तत्त्वमीमांसा में धर्म और अधर्म शब्द अन्य भारतीय दर्शनों से नितान्त भिन्न रूप में व्यवहृत हुए हैं।' पाश्चात्य विद्वान प्रो० गोण्डा के अनुसार-जैन दर्शन के विकास काल में ये दो शब्द 'धर्म' और 'अधर्म' इतने प्रचलित थे कि जैन दर्शन अपने सिद्धान्तों में इन्हें स्थान दिये बिना नहीं रह सका । सामान्यतया इनके द्वारा प्रतिपादित अर्थ जैन दर्शन को मान्य नहीं था अतः जैन दर्शन ने इन शब्दों को बिल्कुल * प्रवक्ता, पार्श्वनाथ विद्यापीठ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525032
Book TitleSramana 1997 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1997
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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