________________
52 : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१६६७
(६)
(७)
८.
अप्पय
जह ३.१८
जहा
(३)
ओ
६.८
तु या उ
अणदिणु
अणुदिणं
इस तरह से समीक्षित या संशोधित आवृत्ति में जो पाठ कल्पित किये गये हैं वे किसी हस्तप्रत में मिल भी जाय तो सर्वत्र छन्दोभंग होगा अतः ऐसी कल्पना करना कि अभी जो अपभ्रंश रूप उपलब्ध हैं वे विश्वसनीय नहीं हो सकते, यह किस आधार पर मान्य रक्खा जाय? ऐसी परिस्थिति में यही मानना उपयुक्त होगा कि 'षट्प्राभृत में कितने ही ऐसे प्रयोग हैं जो परवर्ती (प्रवचनसार की भाषा की तुलना में, काल के और अपभ्रंश भाषा संबंधी हैं जिसके कारण षट्प्राभृत की रचना का काल अपभ्रंश युग में चला जाता है और इसलिए यह न तो स्वयं कुन्दकुन्दाचार्य की ही रचना है और न ही उनके द्वारा प्रचलित किया गया प्राचीन गाथाओं का संकलन है जैसी कि डॉ० ए० एन० उपाध्ये की धारणा है। संदर्भ१. देखिए प्रवचनसार, सं० ए०एन० उपाध्ये, कीप्रस्तावना पृ० ३५, (श्रीमद् राजचन्द्र
जैन शास्त्रमाला, श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अगास १६६४) २. वहीं, पृ० ३५. 3. Pravacanasāra, Kundakunda, editor Prof. A.N. Upadhye
Shrimand Rajachandra Jaina Shastramala, Shrimad Rajchandra Ashram, Agas, 1964 'Introduction' p.36.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org