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________________ षट्प्राभृत के रचनाकार और उसका रचनाकाल : 47 वड्ढमाण, १.६, सिक्खावय, २. २२; णिब्भय, ४.५० मुणि, ५.१५६ ग. द्वि०ए० वचन) अप्पा, ३.१६; विणय, ४.१७; गारव, ५.१०४ कसाय, ६. २६, सेवा, सद्धा, २.१२. घ. द्वि०ब० वचन ) सुपरीसह ५.६२ च. षष्ठी ए०व०) परिवार, १.१० छ. सप्तमी एक वचन रहिय, २. २०, सिवमग्ग, ३.२, लेसा ( स्त्री०), ४.३३; दंसण, ४.२६ ज. नपुं. ब०व० के प्रत्यय - इं वाले रूपों में इं को छन्द की दृष्टि से गुरु के बदले लघु पढ़ना पड़ता है अर्थात् यह इं प्रत्यय वास्तव में इँ प्रत्यय माना जाना चाहिए जो परवर्ती काल का और अधिकतर अपभ्रंश में प्रयुक्त हुआ है । उदाहरण - चउदसपुव्वाई ५.५२ झ. दीर्घ स्वरान्त शब्दों का विभक्ति रहित हस्व स्वरान्त शब्दों के रूप में प्रयोग सील (शिलायाम् ), स०ए०व० ४.५६ दय (दयाम्), द्वि०ए०व० ५. १३१ एसण (एषणा ) ( प्र०ए०व० (स्त्रीलिंग) २.३६ ञ. तृ०ए०व० के लिए-ए, इं और -इ विभक्ति अर्थात् अपभ्रंश विभक्तियों के प्रयोग इक्किं (एकेन ), ६.२२, जिणे कहियं ( जिनेन कथिनत), ४.६१, संखेवि (संक्षेपेन), ५.१२६ ट. षष्ठी ए०व० या ब०व० का रूप ताह = ( तस्य या तेषाम् ), ३.२७; जाहु (यस्य ) ३.२७ ठ. स०ए०व० की विभक्ति-इ निरइ (नरके), ६.२५ ड. बिना अनुस्वार के अव्ययों का प्रयोग कह ( कथम् ) ३.२४ ( क ), ८. अपभ्रंश के समान अन्य शब्द रूपों के प्रयोग इक्क (एक), ६.२२; इत्तहे ( एतस्मात्), २.३०, अट्ठारह (अष्टादश), ६.६०, तेरहमे (त्रयोदशे), ४.३२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525032
Book TitleSramana 1997 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1997
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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